नीति निदेशक तत्व क्या है? विशेषताएं, वर्गीकरण, सिद्धांत व सम्बन्धित अनुच्छेद

राज्य के नीति निदेशक तत्व का उल्लेख संविधान के भाग चार के अनुच्छेद 36 से 54 तक में किया गया है। संविधान निर्माताओं ने यह विचार 1937 में निर्मित आयरलैंड के संविधान से लिया। आयरलैंड के संविधान में इसे स्पेन के संविधान से ग्रहण किया गया था।

राज्य के नीति निदेशक तत्व

डॉ. भीमराव अंबेडकर ने इन तत्व को ‘विशेषता’ वाला बताया है। मूल अधिकारों के साथ निदेशक तत्व, संविधान की आत्मा एवं दर्शन हैं। ग्रेनविल ऑस्टिन ने निदेशक तत्व और अधिकारों को ‘संविधान की मूल आत्मा कहा है।

नीति निदेशक तत्वों की विशेषताएं

  1. राज्य की नीति के निदेशक तत्व, नामक इस उक्ति से यह स्पष्ट होता है कि नीतियों एवं कानूनों को प्रभावी बनाते समय राज्य इन तत्वों को ध्यान में रखेगा।
  2. निदेशक तत्व भारत शासन अधिनियम, 1935 में उल्लिखित अनुदेशों के समान हैं।
  3. आधुनिक लोकतांत्रिक राज्य में आर्थिक, सामाजिक और राजनीति विषयों में निदेशक तत्व महत्वपूर्ण हैं। इनका उद्देश्य न्याय में उच्च आदर्श, स्वतंत्रता, समानता बनाए रखना है।
  4. निदेशक तत्वों की प्रकृति गैर-न्यायोचित है। यानी कि उनके हनन पर उन्हें न्यायालय द्वारा लागू नहीं कराया जा सकता। अतः सरकार (केंद्र राज्य एवं स्थानीय) इन्हें लागू करने के लिए बाध्य नहीं हैं।
  5. यद्यपि इनकी प्रकृति गैर-न्यायोचित है तथापि कानून की संवैधानिक मान्यता के विवरण में न्यायालय इन्हें देखता है।

नीति निदेशक तत्वों का वर्गीकरण

हालांकि संविधान में इनका वर्गीकरण नहीं किया गया है लेकिन इनकी दशा एवं दिशा के आधार पर इन्हें तीन व्यापक श्रेणियों-

  • समाजवादी,
  • गांधीवादी और
  • उदार बुद्धिजीवी

में विभकत किया गया है:

1. समाजवादी सिद्धांत

ये सिद्धांत समाजवाद के आलोक में हैं। ये लोकतांत्रिक समाजवादी राज्य का खाका खींचते हैं, जिनका लक्ष्य सामाजिक एवं आर्थिक न्याय प्रदान कराना है। ये लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना का मार्ग प्रशस्त करते हैं। ये राज्य को निर्देश देते हैं कि:

1.  लोक कल्याण की अभिवृद्धि के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय द्वारा सामाजिक व्यवस्था सुनिश्चित करना- और आय, प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता को समाप्त करना (अनुच्छेद 38)।

 2. सुरक्षित करना-

  • सभी नागरिकों को जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार,
  • सामूहित हित के लिए समुदाय के भौतिक संसाधनों का सम वितरण,
  • धन और उत्पादन के साथनों का संकेन्द्रण रोकना,
  • पुरूषों और स्त्रियों को समान कार्य के लिए समान वेतन,
  • कर्मकारों के स्वास्थ्य और शक्ति तथा बालकों को बलाम श्रम से संरक्षण,
  • बालकों को स्वास्थ्य विकास के अवसर (अनुच्छेद 39)।
  1. समान न्याय एवं गरीबों को नि:शुल्क विधिक सहायता उपलब्ध कराना” (अनुच्छेद 39क)
  2. काम पाने के, शिक्षा पाने के और बेकारी, बुढ़ापा, बीमारी और निरूशक्ततता की दशाओं में लोक सहायता पाने के अधिकार को संरक्षित करना (अनुच्छेद 41)।
  3. काम की न्यायसंगत और मानवोचित दशाओं का तथा प्रसूति सहायता का उपबंध करना (अनुच्छेद 42)।
  4. सभी कर्मकारों के लिए निर्वाह मजदूरी , शिष्ट जीवन स्तर तथा सामाजिक और सांस्कृतिक अवसर (अनुच्छेद 43)।
  5. उद्योगों के प्रबंध में कर्मकारों के भाग लेने के लिए कदम उठाना (अनुच्छेद 43 क) |
  6. पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊंचा करना तथा लोक स्वास्थ्य का सुधार करना (अनुच्छेद 47)।

गांधीवादी सिद्धांत

ये सिद्धांत गांधीवादी विचारधारा पर आधारित हैं। ये राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान गांधी द्वारा पुनर्स्थापित योजनाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। गांधीजी के सपनों को साकार करने के लिए उनके कुछ विचारों को निदेशक तत्वों में शामिल किया गया है।

ये राज्य से अपेक्षा करते हैं:

  1. ग्राम पंचायतों का गठन और उन्हें आवश्यक शक्तियां प्रदान कर स्व-सरकार की इकाई के रूप में कार्य करने की शक्ति प्रदान करना (अनुच्छेद 40)।
  2. ग्रामीण क्षेत्रों में कुटीर उद्योगों व्यक्तिगत या सहकारी के आधार पर कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन (अनुच्छेद 43)।
  3. सहकारी समितियों के स्वैच्छिक गठन, स्वायत्त संचालन, लोकतांत्रिक निमंत्रण तथा व्यावसायिक प्रबंधन को बढ़ावा देना (अनुच्छेद 43B)।
  4. अनुसूचित जाति एवं जनजाति और समाज के कमजोर वर्गों के शैक्षणिक एवं आर्थिक हितों को प्रोत्साहन और सामाजिक अन्याय एवं शोषण से सुरक्षा (अनुच्छेद 46)।
  5. स्वास्थ्य के लिए नुकसानदायक नशीली दवाओं, मदिरा, ड्रग के औषधीय प्रयोजनों से भिन्न उपभोग पर प्रतिबंध (अनुच्छेद 47)।
  6. गाय, बछड़ा व अन्य दुधारू पशुओं की बलि पर रोक और उनकी नस्लों में सुधार को प्रोत्साहन (अनुच्छेद 48)।

उदार बौद्धिक सिद्धांत

इस श्रेणी में उन सिद्धांतों को शामिल किया है जो उदारवादिता की विचारधारा से संबंधित हैं। ये राज्य को निर्देश देते हैं:

  1. भारत के समस्त राज्य क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता (अनुच्छेद 44)।
  2. सभी बालकों को चौदह वर्ष की आयु पूरी करने तक नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा देना’ (अनुच्छेद 45)।
  3. कृषि और पशुपालन को आधुनिक और वैज्ञानिक प्रणालियों से करना (अनुच्छेद 48)।
  4. पर्यावरण का संरक्षण तथा संवर्द्धधन और वन तथा वन्य जीवों की रक्षा’ (अनुच्छेद 48a)
  5. राष्ट्रीय महत्व वाले घोषित किए गए कलात्मक या ऐतिहासिक अभिरुचि वाले संस्मारक या स्थान या वस्तु का संरक्षण करना (अनुच्छेद 49)।
  6. राज्य की लोक सेवाओं में, न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक्‌ करना (अनुच्छेद 50)।
  7. अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा की अभिवृद्धि करना तथा राष्ट्रों के बीच न्यायपूर्ण और सम्मानपूर्ण संबंधों को बनाए रखना, अंतर्राष्ट्रीय विधि और संधि बाध्यताओं के प्रति आदर बढ़ाना और अंतर्राष्ट्रीय विवादों को मध्यस्थ द्वारा निपटाने के लिए प्रोत्साहन देना (अनुच्छेद 54)।

नए निदेशक तत्व

42वें संशोधन अधिनियम 1976 में निदेशक तत्व की मूल सूची में 4 तत्व और जोड़े गए। इनकी भी राज्य से अपेक्षा रहती है:

  1. बच्चों के स्वस्थ विकास के लिए अवसरों को सुरक्षित करना (अनुच्छेद 39)|।
  2. समान न्याय को बढ़ावा देने के लिए और गरीबों को मुफ्त कानूनी सहायता प्रदान करने के लिए (अनुच्छेद 39A)।
  3. उद्योगों के प्रबंधन में श्रमिकों की भागीदारी को सुरक्षित करने के लिए कदम उठाने के लिए (अनुच्छेद 43A)।
  4. रक्षा और पर्यावरण को बेहतर बनाने और जंगलों और वन्य जीवन की रक्षा करने के लिए (अनुच्छेद 48A)।

44वां संशोधन अधिनियम, 1978 एक और निदेशक तत्व को जोड़ता है जो राज्य से अपेक्षा रखता है कि वह आय, प्रतिष्ठा एवं सुविधाओं के अवसरों में असमानता को समाप्त करे (अनुच्छेद 38)। 86वें संशोधन अधिनियम, 2002 में अनुच्छेद 45 की विषय वस्तु को बदला गया और प्राथमिक शिक्षा को अनुच्छेद 21 क के तहत मूल अधिकार बनाया गया। संशोधित निदेशक तत्वों में राज्य से अपेक्षा की गई है कि वह बचपन देखभाल के अलावा सभी बच्चों को 6 वर्ष की आयु तक नि:शुल्क शिक्षा उपलब्ध कराएगा।

सहकारी समितियों से सम्बन्धित एक नया 97वां संशोधन अधिनियम 2011 द्वारा सहकारी समितियों से सम्बन्धित एक नया नीति-निदेशक सिद्धांत जोड़ा गया है। इसके अंतर्गत राज्यों से यह अपेक्षा की गई है कि वे सहकारी समितियों के स्वैच्छिक गठन, स्वायत्त संचालन, लोकतांत्रिक निमंत्रण तथा व्यावसायिक प्रबंधन को बढ़ावा दें (अनुच्छेद 43B)|

नीति निदेशक सिद्धांतों से सम्बन्धित अनुच्छेद

नीति निदेशक सिद्धांतों से सम्बन्धित अनुच्छेद: एक नजर में

अनुच्छेद संख्याविषय-वस्तु
36.राज्य की परिभाषा
37.इस भाग में समाहित सिद्धांतों को लागू करना
38.राज्य द्वारा जन-कल्याण के लिए सामाजिक व्यवस्था को बढ़ावा देना
39राज्य द्वारा अनुसरण किये जाने वाले कुछ नीति-सिद्धांत
39(A)समान न्याय एवं निःशुल्क कानूनी सहायता
40ग्राम पंचायतों का संगठन
41कुछ मामलों में काम का अधिकार, शिक्षा का अधिकार तथा सार्वजनिक सहायता
42न्यायोचित एवं मानवीय कार्य दशाओं तथा मातृत्व सहायता के लिए प्रावधान
43कर्मचारियों को निर्वाह वेतन आदि
43Aउद्योगों के प्रबंधन में कर्मचारियों को सहभागिता
43Bसहकारी समितियों को प्रोत्साहन
44नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता
45बालपन-पूर्व देखभाल तथा 6 वर्ष से कम आयु के बच्चों की शिक्षा
46अनु. जाति, अनु. जनजाति का कमजोर वर्गों के शैक्षिक, तथा आर्थिक हितों को बढ़ावा देना
47पोषाहार का स्तर बढ़ाने, जीवन स्तर सुधारने तथा जन-स्वास्थ्य की स्थिति बेहतर करने सम्बन्धी सरकार का कर्तव्य
48कृषि एवं पशुपालन का संगठन
48Aपर्यावरण संरक्षण एवं संवर्द्धध तथा वन एवं वन्य जीवों की सुरक्षा
49स्मारकों तथा राष्ट्रीय महत्व के स्थानों एवं वस्तुओं का संरक्षण
50न्यायपालिका का कार्यपालिका से अलगाव
51अंतराष्टीय शांति एवं सुरक्षा को प्रोत्साहन

निदेशक सिद्धांतों के पीछे संस्तुति

संविधान सभा के संवैधानिक सलाहकार सर बी.एन. राव ने इस बात की संस्तुति की थी कि वैयक्तिक अधिकार को दो श्रेणियों-

  • न्यायोचित एवं
  • गैर-न्यायोचित

में बांटा जाना चाहिए, जिसे प्रारूप समिति द्वारा स्वीकार कर लिया गया।

इस तरह न्यायोचित प्रकृति वाले मूल अधिकारों को भाग तीन में उल्लिखित किया गया और गैर-न्यायोचित निदेशक तत्व को संविधान के भाग-4 में रखा गया। यद्यपि निदेशक तत्व गैर-न्यायोचित हैं तथापि संविधान (अनुच्छेद 37) में इस बात को स्पष्ट किया गया कि ‘ये तत्व देश के शासन में मूलभूत हैं, अतः यह राज्य का कर्तव्य होगा कि इन तत्व का विधि बनाने में प्रयोग करे।’ अत: यह इनके अनुप्रयोग हेतु राज्य प्राधिकारियों पर नेतिक दायित्व अभ्यारोपित करता है, परन्तु इसके पीछे वास्तविक शक्ति राजनीतिक है अर्थात्‌ जनमत।

अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर ने कहा था- लोगों के लिए उत्तरदायी कोई भी मंत्रालय संविधान के भाग-4 में वर्णित उपबंधों की अवहेलना नहीं कर सकता।

इसी प्रकार डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने संविधान सभा में कहा था कि लोकप्रिय मत पर कार्य करने वाली सरकार इसके लिए नीति बनाते समय निदेशक तत्वों की अवहेलना नहीं कर सकती। यदि कोई सरकार इनकी अवहेलना करती है तो निर्वाचन समय में उसे मतदाताओं के समक्ष इसका उत्तर अवश्य देना होगा।

संविधान निर्माताओं ने निदेशक सिद्धांतों को गैर न्यायोचित एवं विधि रूप से लागू करने की बाध्यता वाला नहीं बनाया क्योंकि

  • देश के पास उन्हें लागू करने के लिए पर्याप्त वित्तीय संसाधन नहीं थे।
  • देश में व्यापक विविधता एवं पिछड़ापन इनके क्रियान्वयन में बाधक होगा।
  • स्वतंत्र भारत को नए निर्माण के कारण इसे कई तरह के भारों से मुक्त रखना होगा

ताकि उसे इस बात के लिए स्वतंत्र रखा जाए कि उनके क्रम, समय, स्थान एवं पूर्ति का निर्णय लिया जा सके। उन्होंने न्यायलायी प्रक्रिया से ज्यादा जागरूक जनता के मतों में विश्वास प्रकट किया।

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