मूल अधिकार क्या है? परिभाषा, विशेषताएं, अपवाद, आलोचना व महत्व

संविधान के भाग 3 में अनुच्छेद 12 से 35 तक मूल अधिकार का विवरण है। इस संबंध में संविधान निर्माता अमेरिकी संविधान (यानि अधिकार के विधेयक से) से प्रभावित रहे।

मूल अधिकार क्या है?

संविधान के भाग 3 को ‘भारत का मैग्नाकार्टा” की संज्ञा दी गयी है, जो सर्वथा उचित है। इसमें एक लंबी एवं विस्तृत सूची में ‘न्यायोचित’ मूल अधिकारों का उल्लेख किया गया है। वास्तव में मूल अधिकारों के संबंध में जितना विस्तृत विवरण हमारे संविधान में प्राप्त होता है, उतना विश्व के किसी देश में नहीं मिलता; चाहे वह अमेरिका ही क्‍यों न हो।

संविधान द्वारा बिना किसी भेदभाव के हर व्यक्ति के लिए मूल अधिकारों के संबंध में गारंटी दी गई है। इनमें प्रत्येक व्यक्ति के लिए समानता, सम्मान, राष्ट्रहित और राष्ट्रीय एकता को समाहित किया गया है।

मूल अधिकारों का तात्पर्य राजनीतिक लोकतंत्र के आदर्शों की उन्नति से है। ये अधिकार देश में व्यवस्था बनाए रखने एवं राज्य के कठोर नियमों के खिलाफ नागरिकों की आजादी की सुरक्षा करते हैं। ये विधानमंडल के कानून के क्रियान्वयन पर तानाशाही को मर्यादित करते हैं। संक्षेप में इनके प्रावधानों का उद्देश्य कानून की सरकार बनाना है न कि व्यक्तियों की।

मूल अधिकारों को यह नाम इसलिए दिया गया है, क्योंकि इन्हें संविधान द्वारा गारंटी एवं सुरक्षा प्रदान की गई है, जो राष्ट्र कानून का मूल सिद्धांत है। ये ‘मूल’ इसलिए भी हैं क्योंकि ये व्यक्ति के चहुंमुखी विकास (भौतिक, बौद्धिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक) के लिए आवश्यक हैं।

संविधान में प्राप्त सात मूल अधिकार

मूल रूप से संविधान ने सात मूल अधिकार प्रदान किए थे:

  1. समता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18)
  2. स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22)
  3. शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24)
  4. धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28)
  5. संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार (अनुच्छेद 29-30)
  6. संपत्ति का अधिकार (अनुच्छेद 31)
  7. सांविधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32)

हालांकि, संपत्ति के अधिकार को 44वें संविधान अधिनियम, 1978 द्वारा मूल अधिकारों की सूची से हटा दिया गया है। इसे संविधान के भाग श्र में अनुच्छेद 300-क के तहत कानूनी अधिकार बना दिया गया है। इस तरह फिलहाल छह मूल अधिकार हैं।

मूल अधिकारों की विशेषताएं

मूल अधिकारों को संविधान में निम्नलिखित विशेषताओं के साथ सुनिश्चित किया गया है:

1. उनमें से कुछ सिर्फ नागरिकों के लिए उपलब्ध हैं, जबकि कुछ अन्य सभी व्यक्तियों के लिए उपलब्ध हैं चाहे वे नागरिक, विदेशी लोग या कानूनी व्यक्ति, जैसे-परिषद्‌ एवं कंपनियां हों।

2. ये असीमित नहीं हैं, लेकिन वाद योग्य होते हैं। राज्य उन पर युक्तियुक्त प्रतिबंध लगा सकता है। हालांकि ये कारण उचित है या नहीं इसका निर्णय अदालत करती है। इस तरह ये व्यक्तिगत अधिकारों एवं पूरे समाज के बीच संतुलन कायम करते हैं। यह संतुलन व्यक्तिगत स्वतंत्रता एवं सामाजिक नियंत्रण के बीच होता है।

3. वे सभी सरकार के एकपक्षीय निर्णय के विरूद्ध उपलब्ध हैं। हालांकि उनमें से कुछ निजी व्यक्तियों के खिलाफ भी उपलब्ध हैं।

4. इनमें से कुछ नकारात्मक विशेषताओं वाले होते हैं, जैसे-राज्य के प्राधिकार को सीमित करने से संबंधित; जबकि कुछ सकारात्मक होते हैं, जैसे-व्यक्तियों के लिए विशेष सुविधाओं का प्रावधान।

5. ये न्यायोचित हैं। ये व्यक्तियों को अदालत जाने की अनुमति देते हैं। जब भी इनका उल्लंघन होता है।

6. इन्हें उच्चतम न्यायालय द्वारा गारंटी व सुरक्षा प्रदान की जाती है। हालांकि पीड़ित व्यक्ति सीधे उच्चतम न्यायालय जा सकता है। यह आवश्यक नहीं है कि केवल उच्च न्यायालय के खिलाफ ही वहा अपील को लेकर जाया जाये।

7. ये स्थायी नहीं हैं। संसद इनमें कटौती या कमी कर सकती है लेकिन संशोधन अधिनियम के तहत, न कि साधारण विधेयक द्वारा। यह सब संविधान के मूल ढांचे को प्रभावित किए बिना किया जा सकता है

8. राष्ट्रीय आपातकाल की सक्रियता के दौरान (अनुच्छेद 20 और 21 में प्रत्याभूत अधिकारों को छोड़कर) इन्हें निलंबित किया जा सकता है। अनुच्छेद 19 में उल्लिखित 6 मूल अधिकारों को तब स्थगित किया जा सकता है, जब युद्ध या विदेशी आक्रमण के आधार पर राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा की गई हो। इन्हें सशमस्त्र विद्रोह (आंतरिक आपातकाल) के आधार पर स्थगित नहीं किया जा सकता

9. अनुच्छेद 31क (संपत्ति आदि के अधिग्रहण पर कानून की रक्षा) द्वारा इनके कार्यान्वयन की सीमाएं हैं। अनुच्छेद 31ख (कुछ अधिनियमों और विनियमों का विधि मान्यीकरण 9वीं सूची में शामिल किया गया) एवं अनुच्छेद 31ग (कुछ कुछ निदेशक तत्वों को प्रभावी करने वाली विधियों की व्यावृत्ति) आदि।

10. सशस्त्र बलों, अर्द्ध-)निक बलों, पुलिस बलों, गुप्तचर संस्थाओं और ऐसी ही सेवाओं से संबंधित सेवाओं के क्रियान्वयन पर संसद प्रतिबंध आरोपित कर सकती है (अनुच्छेद 33)।

11. ऐसे इलाकों में भी इनका क्रियान्वयन रोका जा सकता है, जहां फौजी कानून प्रभावी हो। फौजी कानून का मतलब ‘सैन्य शासन’ से है, जो असामान्य परिस्थितियों में लगाया जाता है (अनुच्छेद 34)। यह राष्ट्रीय आपातकाल से भिन्न है। इनमें से ज्यादातर अधिकार स्वयं प्रवर्तित हैं, जबकि कुछ को कानून की मदद से प्रभावी बनाया जाता है। ऐसा कानून देश की एकता के लिये संसद द्वारा बनाया जाता है, न कि विधान मंडल द्वारा ताकि संपूर्ण देश में एकरूपता बनी रहे (अनुच्छेद 35)।

राज्य की परिभाषा

मूल अधिकारों से संबंधित विभिन्न उपबंधों में राज्य‘ शब्द का प्रयोग किया गया है। इस तरह इसे अनुच्छेद 12 में भाग-ग के उद्देश्य के तहत परिभाषित किया गया है। इसके अनुसार राज्य में निम्नलिखित शामिल हैं:

  • कार्यकारी एवं विधायी अंगों को संघीय सरकार में क्रियान्वित करने वाली सरकार और भारत की संसद।
  • राज्य सरकार के विधायी अंगों को प्रभावी करने वाली सरकार और राज्य विधानमंडल।
  • सभी स्थानीय निकाय अर्थात्‌ नगरपालिकाएं, पंचायत, जिला बोर्ड सुधार न्यास आदि।
  • अन्य सभी निकाय अर्थात्‌ वैधानिक या गैर-संवैधानिक प्राधिकरण, जैसे- एलआईसी, ओएनजीसी, सेल आदि।

इस तरह राज्य को विस्तृत रूप में परिभाषित किया गया है। इसमें शामिल इकाइयों के कार्यों को अदालत में तब चुनौती दी जा सकती है, जब मूल अधिकारों का हनन हो रहा हो।

उच्चतम न्यायालय के अनुसार, कोई भी निजी इकाई या ऐजेंसी, जो बतौर राज्य की संस्था काम कर रही हो, अनुच्छेद 12 के तहत ‘राज्य’ के अर्थ में आती है।

मूल अधिकारों से असंगत विधियां

अनुच्छेद 13 घोषित करता है कि मूल अधिकारों से असंगत या उनका अल्पीकरण करने वाली विधियां शून्य होंगी। दूसरे शब्दों में, ये न्यायिक समीक्षा योग्य हैं। यह शक्ति उच्चतम न्यायालय (अनुच्छेद 32) और उच्च न्यायालयों (अनुच्छेद 226) को प्राप्त है, जो किसी विधि को मूल अधिकारों का उल्लंघन होने के आधार पर गैर-संवैधानिक या अवैध घोषित कर सकते हैं।

अनुच्छेद 13 के अनुसार, विधि’ शब्द को निम्नलिखित में शामिल कर व्यापक रूप दिया गया है:

  • स्थायी विधियां, संसद या राज्य विधानमंडल द्वारा पारित।
  • अस्थायी विधियां, जैसे-राज्यपालों या राष्ट्रपति द्वारा जारी अध्यादेश।
  • प्रत्यायोजित विधान (कार्यपालिका विधान) की प्रकृति में सांविधानिक साधन, जैसे-अध्यादेश, आदेश, उपविधि, नियम, विनियम या अधिसूचना।
  • विधि के गैर विधायी स्रोत, जेसे विधि का बल रखने वाली रूढ़ि या प्रथा।

न केवल विधान बल्कि उपरोक्त में से किसी को अदालत में मूल अधिकारों के हनन पर चुनौती दी जा सकती है, अवैध घोषित किया जा सकता है।

इस तरह अनुच्छेद 13 घोषित करता है कि संविधान संशोधन कोई विधि नहीं है इसलिए उसे चुनौती नहीं दी जा सकती। यद्यपि उच्चतम न्यायालय ने केशवानंद भारती मामले (1973) में कहा कि मूल अधिकारों के हनन के आधार पर संविधान संशोधन को चुनौती दी जा सकती है। यदि वह संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ हो तो उसे अवैध घोषित किया जा सकता है।

मूल अधिकारों के अपवाद

1. संपदाओं आदि के अर्जन के लिए उपबंध करने वाली विधियों की व्यावृत्ति

अनुच्छेद 31क विधियों की पांच श्रेणियों से व्यावृत्ति प्रदान करता है कि इन्हें अनुच्छेद 14 (विधि के समक्ष समता और विधियों की समान संरक्षण) और अनुच्छेद 19 (वाक्‌-स्वातंत्रय, सम्मेलन, संचरण इत्यादि के संबंध में मूल अधिकारों की सुरक्षा) द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों के उल्लंघन के आधार पर चुनौती और अवैध नहीं ठहराया जा सकता।

  • राज्य द्वारा संपदाओं का अधिग्रहण” और संबंधित अधिकार ।
  • राज्य द्वारा संपत्ति के प्रबंधन का दायित्व संभालना ।
  • निगमों का सम्मिश्रण।
  • निगमों के शेयरधारकों या निदेशकों के अधिकारों का पुनर्निर्धारण या समाप्ति।
  • खनन पट्टे का पुनर्निर्धारण या उनकी समाप्ति।

अनुच्छेद 31 क राज्य को न्यायिक समीक्षा से उन्मुक्ति प्रदान नहीं करता है, जब इसे राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित रखा गया हो और इसे सहमति प्राप्त हो गई हो। यह अनुच्छेद इस बात की भी व्यवस्था करता है कि राज्य अधिगृहीत ऐसी भूमि की, जिसका उपयोग कोई व्यक्ति सांविधिक निर्धारित सीमा के अंदर और फसल उत्पादन के लिये कर रहा होगा, बाजार मूल्य के अनुसार क्षतिपूर्ति देगा।

2. कुछ अधिनियमों और विनियमों का विधिमान्यकरण

अनुच्छेद 31ख नौवीं अनुसूची में उल्लिखित अधिनियमों एवं नियमों को व्यावृत्ति प्रदान करता है, इस तरह अनुच्छेद 31 ख का क्षेत्र 31 क से ज्यादा विस्तृत है। अनुच्छेद 31ख नौवीं अनुसूची में सम्मिलित किसी भी विधि को सभी मूल अधिकारों से उन्मुक्ति प्रदान करता है फिर चाहे विधि अनुच्छेद 31क में उल्लिखित पांच श्रेणियों में से किसी के अंतर्गत हो या नहीं।

यद्यपि आई.आर. कोएल्हो केस में उच्चतम न्यायालय ने अपने एक निर्णय में कहा कि नौवीं अनुसूची में सम्मिलित विधियों को न्यायिक समीक्षा से उन्मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। न्यायालय ने कहा कि न्यायिक समीक्षा संविधान की मूल विशेषता है और किसी विधि को नौवीं अनुसूची के अंतर्गत रखे, इसकी यह विशेषता समाप्त नहीं की जा सकती

इसने निर्णय दिया कि 24 अप्रैल, 1973 के बाद नौवीं अनुसूची में सम्मिलित विधियों को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है, यदि वे संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 19 और 21 या इसके मूल रूप या मूल विशेषताओं का उल्लंघन करती हों। 24 अप्रैल, 1973 को उच्चतम न्यायालय ने पहली बार केशवानंद भारती मामले में अपने ऐतिहासिक फैसले में संविधान के मौलिक ढांचे के सिद्धांत को प्रतिपादित किया।

मूलतः (1951 में) नौवीं सूची में सिर्फ 13 अधिनियमों एवं विनियमों को रखा गया था। लेकिन इस समय (वर्ष 2016 तक) इनकी संख्या 282 हो गई है। इनमें, राज्य विधानमंडल के अधिनियम एवं विनियम है, जो भू-सुधार से संबंधित हैं तथा जमींदारी व्यवस्था को समाप्त करना और संसद के कार्य क्षेत्र के अन्य मामले शामिल हैं।

3. कुछ निदेशक तत्वों को प्रभावी करने वाली विधियों की व्यावृत्ति

25वें संशोधन अधिनियम, 1971 द्वारा यथा समाहित अनुच्छेद 31ग में निम्नांकित दो उपबंध हैं:

  1. कोई भी कानून जिसमें अनुच्छेद 39(ख) अथवा (ग) में विनिर्दिष्ट सामाजवादी निदेशक सिद्धांतों को लागू करने की मांग की गयी है, अनुच्छेद 14 (विधि के समक्ष समानता और समान कानूनी संरक्षण) अथवा अनुच्छेद 19 (अभिव्यक्ति, सभा करने, देश भर में घूमने आदि के संबंध में छह अधिकारों की रक्षा) द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों के उलंघन के आधार पर अमान्य घोषित नहीं होगा।
  2. कोई भी विधि जो यह घोषणा करे कि यह किसी नीति को प्रभावी करने हेतु है उसे किसी भी न्यायालय में इस आधार पर चुनौती दी जा सकती है कि यह ऐसी नीति को प्रभावी नहीं करता है।

केशवानंद भारती मामले (1973)’ में उच्चतम न्यायालय ने उपरोक्त अनुच्छेद 31 ग के द्वितीय प्रावधान को संविधान की महत्वपूर्ण विशेषता न्यायिक समीक्षा के आधार पर गैर-संवैधानिक बताया गया। हालांकि अनुच्छेद 31ग के पहले प्रावधान को संवैधानिक एवं वैध माना है।

42वें संशोधन अधिनियम (1976) ने अनुच्छेद 31ग के उपरोक्त पहले प्रावधान के क्षेत्र में न केवल अनुच्छेद 39(ख) या (ग) में बल्कि संविधान के भाग-4 में वर्णित किसी निदेशक तत्व को लागू करने के लिए किसी विधि की अपनी संरक्षा में सम्मिलित कर विस्तृत किया। हालांकि इस विस्तार को उच्चतम न्यायालय द्वारा मिनर्वा मिल्स मामले (1980) में असंवैधानिक एवं अवैध घोषित किया गया।

मूल अधिकारों की आलोचना

संविधान के भाग 3 में वर्णित मूल अधिकारों की व्यापक एवं मिश्रित आलोचनाएं भी हुईं हैं। आलोचकों के तर्क इस प्रकार हैं:

1. व्यापक सीमाएं

ये असंख्य अपवादों, प्रतिबंधों, गुणों एव व्याख्याओं के विषय हैं। इस तरह आलोचकों ने इस बात का उल्लेख किया है कि एक तरफ तो संविधान मूल अधिकार प्रदान करता है और दूसरी तरफ उन्हें छीन लेता है, जसपत राय कपूर इस संबंध में कहते हैं कि मूल अधिकारों के भाग को इस तरह कहा जाना चाहिए; ‘मूल अधिकारों की सीमाएं’ या ‘मूल अधिकार एवं उसमें निहित सीमाएं‘।

2. कोई सामाजिक एवं आर्थिक अधिकार नहीं

यह सूची व्यापक नहीं है। इसमें मुख्यतः राजनीतिक अधिकारों का उल्लेख है। इसमें महत्वपूर्ण सामाजिक एवं आर्थिक अधिकारों की व्यवस्था नहीं है, जैसे- सामाजिक सुरक्षा का अधिकार, काम का अधिकार, रोजगार का अधिकार, विश्राम एवं सुविधा का अधिकार आदि। ये अधिकार उन्नत लोकतांत्रिक देशों के नागरिकों को प्राप्त हैं। समाजवादी संविधानों, जैसे-रूस एवं चीन में भी ऐसे अधिकारों की व्यवस्था है।

3. स्पष्टठता का अभाव

इनकी व्याख्या अस्पष्ट, अनिश्चित एवं धुंधली है। कई अभिव्यक्तियां एवं शब्द, जैसे ‘लोक व्यवस्था’, ‘अल्पसंख्यक’, ‘उचित प्रतिबंध’, ‘सार्वजनिक हित’ आदि सही व्याख्यायित नहीं हैं। इसको समझाने के लिए जिस भाषा का प्रयोग किया गया है, वह एक आम आदमी के समझने के लिए काफी जटिल है। ऐसा आरोप भी लगाया जाता है कि संविधान को वकीलों द्वारा वकीलों के लिए बनाया गया है। सर आइवर जेनिंग्स ने भारतीय संविधान को ‘वकीलों के लिए स्वर्ग‘ की संज्ञा दी है।

4. स्थायित्व का अभाव

ये अलंघनीय और अपरिवर्तनीय नहीं हैं। जैसे कि संसद इनमें कटोती कर सकती है या समाप्त कर सकती है। उदाहरण के लिए संपत्ति के मूल अधिकार को 1978 में समाप्त कर दिया गया। ये संसद में बहुमत वाले राजनीतिज्ञों का एक हथियार हैं। न्याय क्षेत्र द्वारा बनाया गया ‘मूल ढांचे का सिद्धांत’, जिसमें मूल अधिकारों में कटोती या उनको समाप्त करने के संसद में अधिकार की सीमाएं निहित हैं।

5. आपातकाल के दौरान स्थगन

राष्ट्रीय आपातकाल के समय इनके क्रियान्वयन का स्थगन (केवल अनुच्छेद 20 और 21 के) इन अधिकारों पर एक और प्रतिबंध है। यह व्यवस्था लोकतांत्रिक व्यवस्था की जड़ों को दुर्बल करती है तथा करोड़ों निर्दोष लोगों के अधिकारों को समाप्त करती है। आलोचकों के अनुसार, मूल अधिकारों को हमेशा रहना चाहिए चाहे आपातकाल हो या सामान्य स्थिति।

6. महंगा उपचार

न्यायपालिका को इन अधिकारों की रक्षा एवं विधानमंडल व कार्यपालिका द्वारा इस पर हस्तक्षेप के विरुद्ध जिम्मेदार बनाया गया है लेकिन न्यायिक प्रक्रिया आम आदमी के लिए काफी खर्चीली है। इसलिए आलोचक कहते हैं कि भारतीय समाज में अधिकार सुविधा मूलतः धनाढ्य लोगों के लिए ही है।

7. निवारक निरोध

आलोचकों का मत है कि निवारक निरोध का उपबंध (अनुच्छेद 22) मूल अधिकारों की मुख्य भावना से इसे दूर करता है। यह राज्य को मनमानी शक्ति प्रदत्त करती है और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को नकारती है। यह इस आलोचना को न्यायोचित ठहराती है कि भारत का संविधान, व्यक्तिगत अधिकारों की तुलना में राज्य के अधिकारों की ज्यादा व्यवस्था करता है। किसी भी लोकतांत्रिक देश में निवारक निरोध को भारत की तरह संविधान का आंतरिक भाग नहीं बनाया गया है।

8. प्रतिमान दर्शन नहीं

कुछ आलोचकों के अनुसार, मूल अधिकारों पर पाठ किसी दार्शनिक सिद्धांत की उपज नहीं है। सर आइवर जेनिंग्स ने कहा है कि मूल अधिकारों को किसी प्रतिमान दर्शन के आधार पर घोषित नहीं किया गया है। आलोचक कहते हैं कि ये उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों के लिए मूल अधिकारों की व्याख्या में कठिनाई उत्पन्न करते हैं।

मूल अधिकारों का महत्व

उपरोक्त आलोचनाओं के बावजूद निम्नलिखित मामलों में मूल अधिकार महत्वपूर्ण हैं:

  1. ये देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था को स्थापित करते हैं।
  2. ये व्यक्ति की भौतिक एवं नैतिक सुरक्षा के लिए आवश्यक स्थिति उत्पन्न करते हैं।
  3. ये वैयक्तिक स्वतंत्रता के रक्षक हैं।
  4. वे देश में विधि के शासन की स्थापना करते हैं।
  5. ये अल्पसंख्यकों एवं समाज के कमजोर वर्गों के हितों की रक्षा करते हैं।
  6. ये भारतीय राज्य की धर्मनिरपेक्ष छवि को बल प्रदान करते हैं।
  7. ये सरकार के शासन की पूर्णता पर नियंत्रण करते हैं।
  8. ये सामाजिक समानता एवं सामाजिक न्याय की आधारशिला रखते हैं।
  9. ये व्यक्तिगत सम्मान को बनाए रखना सुनिश्चित करते हैं।
  10. ये लोगों को राजनीतिक एवं प्रशासनिक प्रणाली में भाग लेने का अवसर प्रदान करते हैं।

भाग 3 के बाहर अधिकार

भाग 3 में सम्मिलित मूल अधिकारों के अतिरिक्त संविधान के कुछ अन्य भागों में अन्य अधिकार वर्णित हैं। इन अधिकारों को सांविधानिक अधिकार या विधिक अधिकार या गैर-मूल अधिकार भी कहा जाता है। ये हैं:

  1. विधि के प्राधिकार के बिना किसी कर को अधिरोपित या संगृहीत न किया जाना (भाग-12 में अनुच्छेद 265)
  2. विधि के प्राधिकार के बिना व्यक्तियों को संपत्ति से वंचित न किया जाना (भाग 13 में अनुच्छेद 300क)।
  3. भारत के राज्यक्षेत्र में सर्वत्र व्यापार, वाणिज्य और समागम अबाध होगा (भाग 13 में अनुच्छेद 301)।

यद्यपि उपरोक्त अधिकार समान रूप से न्यायोचित हैं, पर ये यह मूल अधिकारों से भिन्न हैं। मूल अधिकार का उल्लंघन होने पर दु:खी व्यक्ति अनुच्छेद 32, जो कि स्वयं में मूल अधिकार है, के अंतर्गत सीधे सर्वोच्च न्यायालय जा सकता है। परन्तु उपरोक्त अधिकारों के उल्लंघन के मामले में व्यक्ति इस सांविधानिक उपचार को प्रयुक्त नहीं कर सकता। वह सामान्य मुकदमों या अनुच्छेद 226 (उच्च न्यायालय का रिट क्षेत्राधिकार) के तहत केवल उच्च न्यायालय में जा सकता है।

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