निदेशक तत्वों की विशेषताएं, आलोचना व उपयोगिता

मूल अधिकारों के साथ निदेशक तत्वों, संविधान की आत्मा एवं दर्शन हैं। ग्रेनविल ऑस्टिन ने निदेशक तत्व और अधिकारों को ‘संविधान की मूल आत्मा कहा है।

निदेशक तत्वों की विशेषताएं

‘1. राज्य की नीति के निदेशक तत्व, नामक इस उक्ति से यह स्पष्ट होता है कि नीतियों एवं कानूनों को प्रभावी बनाते समय राज्य इन तत्वों को ध्यान में रखेगा। ये संवैधानिक निदेश या विधायिका, कार्यपालिका और प्रशासनिक मामलों में राज्य के लिए सिफारिशें हैं। अनुच्छेद 36 के अनुसार भाग 4 में “राज्य” शब्द का वही अर्थ है, जो मूल अधिकारों से संबंधित भाग 3 में है। इसलिए यह केन्द्र और राज्य सरकारों के विधायिका और कार्यपालिका अंगों, सभी स्थानीय प्राधिकरणों और देश में सभी अन्य लोक प्राधिकरणों को सम्मिलित करता है।

2. निदेशक तत्व भारत शासन अधिनियम, 1935 में उल्लिखित अनुदेशों के समान हैं। डॉ. बी.आर. अम्बेडकर के शब्दों में निदेशक तत्व अनुदेशों के समान हैं, जो भारत शासन अधिनियम, 1935 के अंतर्गत ब्रिटिश सरकार द्वारा गवर्नर जनरल और भारत की औपनिवेशिक कालोनियों के गवर्नरों को जारी किए जाते थे। जिसे निदेशक तत्व कहा जाता है, वह इन अनुदेशों का ही दूसरा नाम है। इनमें केवल यह अंतर है कि निदेशक तत्व विधायिका और कार्यपालिका के लिए अनुदेश हैं।

3. आधुनिक लोकतांत्रिक राज्य में आर्थिक, सामाजिक और राजनीति विषयों में निदेशक तत्व महत्वपूर्ण हैं। इनका उद्देश्य न्याय में उच्च आदर्श, स्वतंत्रता, समानता बनाए रखना है। जैसा कि संविधान की प्रस्तावना में परिकल्पित है। इनका उद्देश्य ‘लोक कल्याणकारी राज्य’ का निर्माण है न कि ‘पुलिस राज्य’ जो कि उपनिवेश काल’ में था। संक्षेप में आर्थिक और सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना करना ही इन निदेशक तत्वों का मूल उद्देश्य है।

4. निदेशक तत्वों की प्रकृति गैर-न्यायोचित है। यानी कि उनके हनन पर उन्हें न्यायालय द्वारा लागू नहीं कराया जा सकता। अतः सरकार (केंद्र राज्य एवं स्थानीय) इन्हें लागू करने के लिए बाध्य नहीं हैं। संविधान (अनुच्छेद 37) में कहा गया है। निदेशक तत्व देश के शासन में मूलभूत हैं और विधि बनाने में इन तत्वों को लागू करना राज्य का कर्तव्य होगा।

5. यद्यपि इनकी प्रकृति गैर-न्यायोचित है तथापि कानून की संवैधानिक मान्यता के विवरण में न्यायालय इन्हें देखता है। उच्चतम न्यायालय ने कई बार व्यवस्था दी है कि किसी विधि की सांविधानिकता का निर्धारण करते समय यदि न्यायालय यह पाए कि प्रश्नगत विधि निदेशक तत्व को प्रभावी करना चाहती है तो न्यायालय ऐसी विधि को अनुच्छेद 14 या अनुच्छेद 19 के संबंध में तर्कसंगत मानते हुए असंविधानिकता से बचा सकता है।

निदेशक तत्वों की आलोचना

संविधान सभा के कुछ सदस्यों एवं अन्य संवैधानिक एवं राजनीतिक विशेषज्ञों ने राज्य की नीति के निदेशक तत्वों की निम्नलिखित आधार पर आलोचना की है:

1. कोई कानूनी शक्ति नहीं

मुख्यतः इनके गैर-न्यायोचित चरित्र के कारण इनकी आलोचना की गई, जबकि के.टी. शाह ने इसे ‘अतिरेक कर्मकांडी‘ बताया और इसकी तुलना ‘एक चेक जो बैंक में है, उसका भुगतान बैंक संसाधनों की अनुमति पर ही संभव‘ से की। नसीरुद्दीन ने इनके लिए कहा-“ये सिद्धांत नव वर्ष प्रस्तावों की तरह हैं, जो जनवरी को टूट जाते हैं।

यहां तक कि टी.टी. कृष्णमचारी ने इनके लिए कहा, “भावनाओं का एक स्थायी कूड़ाघर।” के.सी. व्हेयर ने इन्हें ‘लक्ष्य एवं आकांक्षाओं का घोषणा-पत्र” कहा और इन्हें धार्मिक उपदेश बताया तथा सर आइवर जेनिंग्स इन्हें ‘कर्मकांडी आकांक्षा‘ कहते हैं।

2. तर्कहीन व्यवस्था

आलोचकों ने मत दिया कि इन निदेशकों को तार्किक रूप में निरंतरता के आधार पर व्यवस्थित नहीं किया गया है। एन. श्रीनिवासन के अनुसार, “इन्हें न तो उचित तरीके से वर्गीकृत किया गया है और न ही तर्कसंगत तरीके से व्यवस्थित किया गया है।

इनकी घोषणा कम महत्व के मुद्दों को अत्यावश्यक आर्थिक एवं सामाजिक मुद्दों से मिलाती है। यह एक ही तरीके से आधुनिक एवं पुरातन को जोड़ती है। इस व्यवस्था के लिए वैज्ञानिक आधार सुझाया जाता है, जबकि ये भावनाओं एवं बिना पर्याप्त जानकारी के आधार पर आधारित हैं।” सर आइवर जेनिंग्स ने इस ओर संकेत दिए कि इन तत्वों का कोई नियमित प्रतिमान दर्शन नहीं है।

3. रूढ़िवादी

सर आइवर जेनिग्स के अनुसार, ये निदेशक तत्व 19वीं सदी के इंग्लैंड के राजनीतिक दर्शन पर आधारित हैं। उन्होंने टिप्पणी की कि सिडनी वेब और ब्रिटिश वेब के भूत इस पाठ के पूष्ठों में प्रवेश कर गए हैं।

संविधान के भाग चार में व्याख्यायित किया गया है कि ‘समाजवाद के बिना फेबियन समाजवाद“‘। उन्होंने मत दिया कि ये तत्व भारत में 20वीं सदी के मध्य में ज्यादा उपयोगी सिद्ध होंगे। इस प्रश्न का कि क्‍या वे 21वीं सदी में उपयोगी नहीं होंगे? का जवाब नहीं दिया गया। लेकिन यह तय है कि वे अप्रचलित होंगे।

4. संवैधानिक टकराव

के. संथानम का मत है कि इन तत्वों से केंद्र एवं राज्यों के बीच राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री के बीच और राज्यपाल एवं मुख्यमंत्री के बीच संवैधानिक टकराव होगा। उनके अनुसार, केंद्र इन तत्वों को लागू करने के लिए राज्यों को निर्देश दे सकता है और इनके लागू न होने पर वह राज्य सरकार को बर्खास्त कर सकता है।

इसी प्रकार जब प्रधानमंत्री को संसद द्वारा यथापारित विधेयक (जो निदेशक तत्वों का उल्लंघन करता हो) प्राप्त हो तो राष्ट्रपति विधेयक को इस आधार पर अस्वीकृत कर सकता है कि ये तत्व राष्ट्र के शासन के लिए मूलभूत हैं और इसलिए मंत्रालय को इन्हें नकारने का कोई अधिकार नहीं। इसी तरह का संवैधानिक टकराव राज्य स्तर पर राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच भी उत्पन्न हो सकता है।

निदेशक तत्वों की उपयोगिता

उपरोक्त कमियों और आलोचनाओं के बावजूद संविधान से जुड़ाव के संदर्भ में नीति निदेशक तत्व आवश्यक हैं। संविधान में स्वयं भी उल्लिखित है की ये राष्ट्र के शासन हेतु मूलभूत हैं। जाने-माने निर्णायक एवं कूटनीतिज्ञ एल.एम. सिंघवी के अनुसार, निदेशक तत्व, संविधान को जीवनदान देने वाली व्यवस्थाएं हैं। संविधान के आवरण और सामाजिक न्याय में इसका दर्शन दिया है। भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एम.सी. छागला के मतानुसार ‘यदि इन सभी तत्वों का पूरी तरह पालन किया जाए तो हमारा देश, पृथ्वी पर स्वर्ग की भांति लगने लगेगा।” भारत राजनीतिक मामले में तब न केवल लोकतांत्रिक होगा, बल्कि नागरिकों के कल्याण के हिसाब से कल्याणकारी राज्य भी होगा।”

डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने इस ओर संकेत किया कि निदेशक तत्वों का बहुत बड़ा मूल्य है। ये भारतीय राजव्यवस्था के लक्ष्य आर्थिक लोकतंत्र’ को निर्धारित करते हैं जैसा कि ‘राजनीतिक लोकतंत्र‘ प्रकट होता है।

ग्रेनविल ऑस्टिन का कहना है कि “निदेशक तत्वों का लक्ष्य, सामाजिक क्रांति एवं आवश्यक शर्तों को स्थापित कर उनको ग्रहण करने के समान हैं।

संविधान सभा के सलाहकार सर बी.एन. राऊ ने निदेशक तत्वों को राज्य प्राधिकारियों के लिए नेतिक आवश्यकता एवं शैक्षिक मूल्य वाला‘ बताया है।

भारत के पूर्व महान्यायवादी एम.सी. सीतलवाड के अनुसार निदेशक तत्व हालाकि कोई विधिक अधिकार एवं कोई कानुनी उपचार नहीं बताते, फिर भी वे निम्नलिखित मामलों में उल्लेखनीय एवं लाभदायक हैं:

  1. ये ‘अनुदेशों‘ की तरह हैं या ये भारतीय संघ के – अधिकृतों को संबोधित सामान्य संस्तुतियां हैं। ये उन्हें उन सामाजिक एवं आर्थिक मूल सिद्धांतों की याद दिलाते हैं, जो संविधान के लक्ष्यों की प्राप्ति से जुड़े हैं।
  2. ये न्यायालयों के लिए उपयोगी मार्गदर्शक हैं। ये न्यायालयों को न्यायिक समीक्षा की शक्ति के प्रयोग में सहायता करते हैं, जो कि विधि कि संवैधानिक वैधता के निर्धारण वाली शक्ति होती है।
  3. ये सभी राज्य क्रियाओं की विधायिका या कार्यपालिका के लिए प्रभुत्व पृष्ठभूमि का निर्माण करते हैं और न्यायालयों को कुछ मामलों में दिशा-निर्देशित भी करते हैं।
  4. ये प्रस्तावना को विस्तृत रूप देते हैं, जिनसे भारत के नागरिकों को न्याय, स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व के प्रति बल मिलता है

ये निम्नलिखित भूमिकायें भी अदा करते हैं:

  1. ये राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों की घरेलू और विदेशी नीतियों में स्थायित्त और निरंतरता बनाए रखते हैं, भले ही सत्ता में परिवर्तन हो जाए।
  2. ये नागरिकों के मूल अधिकारों के पूरक होते हैं। ये भाग तीन में, सामाजिक एवं आर्थिक अधिकारों की व्यवस्था करते हुए रिकतता को पूरा करते हैं।
  3. मूल अधिकारों के अंतर्गत नागरिकों द्वारा इनका क्रियान्वयन पूर्ण एवं उचित लाभ के पक्ष में माहौल उत्पन्न करता है। राजनीतिक लोकतंत्र बिना आर्थिक लोकतंत्र का कोई अर्थ नहीं होता।
  4. ये विपक्ष द्वारा सरकार पर नियंत्रण को संभव बनाते हैं। विपक्ष, सत्तारूढ़ दल पर निदेशक तत्वों का विरोध एवं इसके कार्यकलापों के आधार पर आरोप लगा सकता है।
  5. ये सरकार के प्रदर्शन की कड़ी परीक्षा करते हैं। लोग सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों का परीक्षण इन संवैधानिक घोषणाओं के आलोक में कर सकते हैं।
  6. ये आम राजनीतिक घोषणा-पत्र की तरह होते हैं ‘एक सत्तारूढ़ दल अपनी राजनीतिक विचारधारा के बावजूद विधायिका एवं कार्यपालिक कृत्यों में इस तथ्य को स्वीकार करता है कि ये तत्व इसके प्रदर्शक, दार्शनिक और मित्र हैं।

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