Chapter-1: संवैधानिक विकास का चरण – ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

भारत में ब्रिटिश 1600 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी के रूप में, व्यापार करने आए। महारानी एलिजाबेथ प्रथम के चार्टर द्वारा उन्हें भारत में व्यापार करने के विस्तृत अधिकार प्राप्त थे। कंपनी, जो अभी तक सिर्फ व्यापारिक कार्यों तक ही सीमित थी, ने 1765 में बंगाल, बिहार और उड़ीसा के दीवानी (अर्थात राजस्व एवं दीवानी न्याय के अधिकार) अधिकार प्राप्त कर लिए। इसके तहत भारत में उसके क्षेत्रीय शक्ति बनने की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। 1858 में, ‘सिपाही विद्रोह’ के परिणामस्वरूप ब्रिटिश ताज (Crown) ने भारत के शासन का उत्तरदायित्व प्रत्यक्षत: अपने हाथों में ले लिया। यह शासन 15 अगस्त, 1947 में भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति तक अनवरत रूप से जारी रहा।

संवैधानिक विकास का चरण

स्वतंत्रता मिलने के साथ ही भारत के लिए एक संविधान की आवश्यकता महसूस हुई। यहां इसको अमल में लाने के उद्देश्य से 1946 में एक संविधान सभा का गठन किया गया और 26 जनवरी, 1950 को संविधान अस्तित्व में आया। यद्यपि संविधान और राजव्यवस्था की अनेक विशेषताएं ब्रिटिश शासन से ग्रहण की गयी थीं तथापि ब्रिटिश शासन में कुछ घटनाएं ऐसी थीं, जिनके कारण ब्रिटिश शासित भारत में सरकार और प्रशासन की विधिक रूपरेखा निर्मित की गई। इन घटनाओं ने हमारे संविधान और राजतंत्र पर गहरा प्रभाव छोड़ा। उनके बारे में विस्तृत व्याख्या दो शीर्षकों के अंतर्गत कालक्रमबद्ध रूप से यहां दी गयी है:

कंपनी का शासन [1773 से 1858 तक]

1773 का रेगुलेटिंग एक्ट

इस अधिनियम का अत्यधिक संवैधानिक महत्व था, यथा

  • भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के कार्यों को नियमित और नियंत्रित करने की दिशा में ब्रिटिश सरकार द्वारा उठाया गया यह पहला कदम था,
  • इसके द्वारा पहली बार कंपनी के प्रशासनिक और राजनीतिक कार्यों को मान्यता मिली, एवं
  • इसके द्वारा भारत में केंद्रीय प्रशासन की नींव रखी गयी।

इस अधिनियम की प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार थीं:

  1. इस अधिनियम द्वारा बंगाल के गवर्नर को ‘बंगाल का गवर्नर जनरल पद नाम दिया गया एवं उसकी सहायता के लिए एक चार सदस्यीय कार्यकारी परिषद का गठन किया गया। उल्लेखनीय है कि ऐसे पहले गवर्नर लॉर्ड वॉरेन हेस्टिंग्स थे।
  2. इसके द्वारा मद्रास एवं बंबई के गवर्नर, बंगाल के गवर्नर जनरल के अधीन हो गये, जबकि पहले सभी प्रेसिडेंसियों के गवर्नर एक-दूसरे से अलग थे।
  3. अधिनियम के अंतर्गत कलकत्ता में 1774 में एक उच्चतम न्यायालय की स्थापना की गई, जिसमें मुख्य न्यायाधीश और तीन अन्य न्यायाधीश थे।
  4. इसके तहत कंपनी के कर्मचारियों को निजी व्यापार करने और भारतीय लोगों से उपहार व रिश्वत लेना प्रतिबंधित कर दिया गया।
  5. इस अधिनियम के द्वारा, ब्रिटिश सरकार का ‘कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स’ (कंपनी की गवर्निंग बॉडी) के माध्यम से कंपनी पर नियंत्रण सशक्त हो गया। इसने भारत में इसके राजस्व, नागरिक और सैन्य मामलों की जानकारी ब्रिटिश सरकार को देना आवश्यक कर दिया गया।

1781 का संशोधन अधिनियम (Amending Act of 1781)

रेगुलेटिंग एक्ट ऑफ 1773 की खामियों को ठीक करने के लिए ब्रिटिश संसद ने अमेन्डिंग एक्ट ऑफ 1781 पारित किया, जिसे बंदोबस्त कानून (Act of Settlement) के नाम से भी जाना जाता है।

इस कानून की निम्नलिखित विशेषताएं थीं:

  1. इस कानून ने गवर्नर जनरल तथा काउसिल को सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार से बरी अथवा मुक्त कर दिया उनके ऐसे कृत्यों के लिए जो उन्होंने पदधारण के अधिकार से किए थे। उसी प्रकार कम्पनी के सेवकों को भी उनकी कार्य करने के दौरान की गई कार्यवाहियों के लिए सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार से मुक्त कर दिया गया।
  2. इस कानून में राजस्व सम्बन्धी मामलों, तथा राजस्व वसूली से जुड़े मामलों को भी सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार के बाहर कर दिया गया।
  3. इस कानून द्वारा कलकत्ता (कोलकाता) के सभी निवासियों को सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत कर दिया गया। इसमें यह भी व्यवस्था बनाई गई कि न्यायालय हिन्दुओं तथा मुसलमानों के निजी कानूनों के हिसाब से मुसलमानों के वाद या मामले तय करे।
  4. इस कानून द्वारा यह व्यवस्था भी की गई कि प्रांतीय न्यायालयों की अपील गवर्नर जनरल-इन-कांउसिल के यहां दायर हो, न कि सर्वोच्च न्यायालय में।
  5. इस कानून में गवर्नर-जनरल-इन काउंसिल को प्रांतीय न्यायालयों एवं काउंसिलों (प्रोविन्शियल कोर्टस एवं काउंसिल्स) के लिए नियम-विनियम बनाने के लिए अधिकृत किया।

1784 का पिट्स इंडिया एक्ट

रेगुलेटिंग एक्ट, 1773 की कमियों को दूर करने के लिए ब्रिटिश संसद ने एक संशोधित अधिनियम 1781 में पारित किया, जिसे एक्ट ऑफ सैटलमेंट के नाम से भी जाना जाता है। इसके बाद एक अन्य महत्वपूर्ण अधिनियम पिट्स इंडिया एक्ट, 1784 में अस्तित्व में आया।

इस अधिनियम की विशेषताएं इस प्रकार थीं:

  1. इसने कंपनी के राजनीतिक और वाणिज्यिक कार्यों को पृथक-पृथक कर दिया।
  2. इसने निदेशक मंडल को कंपनी के व्यापारिक मामलों के अधीक्षण की अनुमति तो दे दी लेकिन राजनीतिक मामलों के प्रबंधन के लिए नियंत्रण बोर्ड ( बोर्ड ऑफ कंट्रोल) नाम से एक नए निकाय का गठन कर दिया। इस प्रकार, द्वैध शासन की व्यवस्था का आरंभ किया गया।
  3. नियंत्रण बोर्ड को यह शक्ति थी कि वह ब्रिटिश नियंत्रित भारत में सभी नागरिक, सैन्य सरकार व राजस्व गतिविधियों का अधीक्षण एवं नियंत्रण करे।

इस प्रकार यह अधनियम दो कारणों से महत्वपूर्ण था पहला, भारत में कंपनी के अधीन क्षेत्र को पहली बार ‘ब्रिटिश आधिपत्य का क्षेत्र’ कहा गया- दूसरा, ब्रिटिश सरकार को भारत में कंपनी के कार्यों और इसके प्रशासन पर पूर्ण नियंत्रण प्रदान किया गया।

1786 का अधिनियम (Act of 1786)

1786 में लार्ड कार्नवालिस को बंगाल का गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया। उसने यह पद स्वीकार करने के लिए दो शर्ते या मांगें रखीं:

  1. उसे विशेष मामलों में अपनी काउंसिल के निर्णयों को अधिभावी करने अथवा न मानने का अधिकार हो।
  2. उसे सेनापति अथवा कमांडर-इन-चीफ का पद भी दिया जाए।

परोक्त शर्तों को 1786 के कानून में प्रावधानों के रूप में जोड़ा गया।

1793 का चार्टर कानून (Charter Act of 1793)

इस कानून की निम्नलिखित विशेषताएं थीं:

  1. इसने लार्ड कार्नवालिस को दी गई काउंसिल के निर्णयों के ऊपर अधिभावी शक्ति को भविष्य के सभी गवर्नर जनरलों एवं प्रेसीडेंसियों के गवर्नरों तक विस्तारित कर दिया।
  2. इसने गवर्नर जनरल को अधीनस्थ बॉम्बे और मद्रास प्रेसीडेंसी की सरकारों के ऊपर अधिक नियत्रणकारी शक्ति प्रदान की।
  3. इसने भारत पर व्यापार के एकाधिकार को अगले बीस वर्षों की अवधि के लिए बढ़ा दिया।
  4. इसने कमांडर-इन-चीफ के गवर्नर जनरल काउंसिल के सदस्य होने की अनिवार्यता समाप्त कर दी, बशर्ते कि उस उसी रूप में नियुक्त किया गया हो।
  5. इसने व्यवस्था दी कि बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के सदस्यों तथा उनके कर्मचारियों को भारतीय राजस्व में से ही भुगतान किया जाएगा।

चार्टर कानून 1813 (Charter Act of 1793)

  1. इस कानून ने भारत में कम्पनी के व्यापार एकाधिकार को समाप्त कर दिया, यानी भारतीय व्यापार को सभी ब्रिटिश व्यापारियों के लिए खोल दिया गया। तब भी इस कानून ने चाय के व्यापार तथा चीन के साथ व्यापार में कम्पनी के एकाधिकार को बहाल रखा।
  2. कानून ने भारत में कम्पनी शासित क्षेत्रों पर ब्रिटेन के राजा की प्रभुता को प्रकट व स्थापित किया।
  3. इस कानून ने भारत में कम्पनी शासित क्षेत्रों पर ब्रिटेन के राजा की प्रभुता को प्रकट व स्थापित किया।
  4. इस कानून ने ईसाई मिशनरियों को भारत आकर लोगों को ‘प्रबुद्ध’ करने की अनुमति प्रदान की।
  5. भारत के ब्रिटिश इलाकों में बाशिंदों के बीच पश्चिमी शिक्षा के प्रचार-प्रसार की व्यवस्था दी।
  6. इस कानून ने भारत की स्थानीय सरकारों को व्यक्तियों पर कर लगाने के लिए अधिकृत किया। कर भुगतान नहीं करने पर दंड की भी व्यवस्था की।

1833 का चार्टर अधिनियम (Charter Act of 1833)

ब्रिटिश भारत के केंद्रीयकरण की दिशा में यह अधिनियम निर्णायक कदम था। इस अधिनियम की विशेषताएं इस प्रकार थीं:

  1. इसने बंगाल के गवर्नर जनरल को भारत का गवर्नर जनरल बना दिया, जिसमें सभी नागरिक और सैन्य शक्तियां निहित थीं। इस प्रकार, इस अधिनियम ने पहली बार एक ऐसी सरकार का निर्माण किया, जिसका ब्रिटिश कब्जे वाले संपूर्ण भारतीय क्षेत्र पर पूर्ण नियंत्रण था। लॉर्ड विलियम बैंटिक भारत के प्रथम गवर्नर जनरल थे।
  2. इसने मद्रास और बंबई के गवर्नरों को विधायिका संबंधी शक्ति से वंचित कर दिया। भारत के गवर्नर जनरल को पूरे ब्रिटिश भारत में विधायिका के असीमित अधिकार प्रदान कर दिये गये। इसके अंतर्गत पहले बनाए गए कानूनों को नियामक कानून कहा गया और नए कानून के तहत बने कानूनों को एक्ट या अधिनियम कहा गया।
  3. ईस्ट इंडिया कंपनी की एक व्यापारिक निकाय के रूप में की जाने वाली गतिविधियों को समाप्त कर दिया गया। अब यह विशुद्ध रूप से प्रशासनिक निकाय बन गया। इसके तहत कंपनी के अधिकार वाले क्षेत्र ब्रिटिश राजशाही और उसके उत्तराधिकारियों के विश्वास के तहत ही कब्जे में रह गए।
  4. चार्टर एक्ट 1833 ने सिविल सेवकों के चयन के लिए खुली प्रतियोगिता का आयोजन शुरू करने का प्रयास किया। इसमें कहा गया कि कंपनी में भारतीयों को किसी पद, कार्यालय और रोजगार को हासिल करने से वंचित नहीं किया जायेगा। हालाकि बोर्ड ऑफ डायरेक्‍्टर्स के विरोध के कारण इस प्रावधान को समाप्त कर दिया गया।

1853 का चार्टर अधिनियम (Charter Act of 1853)

1793 से 1857 के दौरान ब्रिटिश संसद द्वारा पारित किए गए चार्टर अधिनियमो की श्रृंखला में यह अतिम अधिनियम था। संवैधानिक विकास की दृष्टि से यह अधिनियम एक महत्वपूर्ण अधिनियम था।

  1. इस अधिनियम की विशेषताएं इस प्रकार थीं: इसने पहली बार गवर्नर जनरल की परिषद के विधायी एवं प्रशासनिक कार्यों को अलग कर दिया। इसके तहत परिषद में छह नए पार्षद और जोड़े गए इन्हें विधान पार्षद कहा गया। दूसरे शब्दों में इसने गवर्नर जनरल के लिए नई विधान परिषद का गठन किया जिसे भारतीय ( केंद्रीय) विधान परिषद कहा गया।
  2. परिषद की इस शाखा ने छोटी संसद की तरह कार्य किया। इसमें वही प्रक्रियाएं अपनाई गईं, जो ब्रिटिश संसद में अपनाई जाती थीं। इस प्रकार, विधायिका को पहली बार सरकार के विशेष कार्य के रूप में जाना गया, जिसके लिए विशेष मशीनरी और प्रक्रिया की जरूरत थी।
  3. इसने सिविल सेवकों की भर्ती एवं चयन हेतु खुली प्रतियोगिता व्यवस्था का आरंभ किया, इस प्रकार विशिष्ट सिविल सेवा भारतीय नागरिकों के लिए भी खोल दी गई और इसके लिए 1854 में (भारतीय सिविल सेवा के संबंध में) मैकाले समिति की नियुक्त की गई।
  4. इसने कंपनी के शासन को विस्तारित कर दिया और भारतीय क्षेत्र को इंग्लैंड राजशाही के विश्वास के तहत कब्जे में रखने का अधिकार दिया। लेकिन पूर्व अधिनियमों के विपरीत इसमें किसी निश्चित समय का निर्धारण नहीं किया गया था। इससे स्पष्ट था कि संसद द्वारा कंपनी का शासन किसी भी समय समाप्त किया जा सकता था।
  5. इसने प्रथम बार भारतीय केंद्रीय विधान परिषद में स्थानीय प्रतिनिधित्व प्रारंभ किया। गवर्नर-जनरल की परिषद में छह नए सदस्यों में से, चार का चुनाव बंगाल, मद्रास, बंबई और आगरा की स्थानीय प्रांतीय सरकारों द्वारा किया जाना था।

ताज का शासन [1858 से 1947 तक]

1858 का भारत सरकार अधिनियम

इस महत्वपूर्ण कानून का निर्माण 1857 के विद्रोह के बाद किया गया, जिसे भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम या सिपाही विद्रोह भी कहा जाता है। भारत के शासन को अच्छा बनाने वाला अधिनियम नाम के प्रसिद्ध इस कानून ने, ईस्ट इंडिया कंपनी को समाप्त कर दिया और गवर्नरी क्षेत्रों और राजस्व संबधी शक्तिया ब्रिटिश राजशाही को हस्तातरित कर दी।

इस अधिनियम की विशेषताएं इस प्रकार थी:

  1. इसके तहत भारत का शासन सीध महारानी विक्टोरिया के अधीन चला गया। गवर्नर जनरल का पदनाम बदलकर भारत का वायसराय कर दिया गया। वह ( वायसराय) भारत में ब्रिटिश ताज का प्रत्यक्ष प्रतिनिधि बन गया। लॉर्ड कैनिंग भारत के प्रथम वायसराय बने।
  2. इस अधिनियम ने नियंत्रण बोर्ड और निदेशक कोर्ट समाप्त कर भारत में शासन की द्वैध प्रणाली समाप्त कर दी।
  3. एक नए पद, भारत के राज्य सचिव, का सृजन किया गया, जिसमें भारतीय प्रशासन पर संपूर्ण नियंत्रण की शक्ति निहित थी। यह सचिव ब्रिटिश कैबिनेट का सदस्य था और अंतत: ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी था।
  4. भारत सचिव की सहायता के लिए 5 सदस्यीय परिषद का गठन किया गया, जो एक सलाहकार परिषद थी। परिषद का अध्यक्ष भारत सचिव को बनाया गया।
  5. इस कानून के तहत भारत सचिव की परिषद का गठन किया गया, जो एक निगमित निकाय थी और जिसे भारत और इंग्लैंड में मुकदमा करने का अधिकार था। इस पर भी मुकदमा किया जा सकता था।

1858 के कानून का प्रमुख उद्देश्य, प्रशासनिक मशीनरी में सुधार था, जिसके माध्यम से इंग्लैंड में भारतीय सरकार का अधीक्षण और उसका नियंत्रण हो सकता था। इसने भारत में प्रचलित शासन प्रणाली में कोई विशेष परिवर्तन नहीं किया।

1861 का भारत परिषद अधिनियम

1857 की महान क्रांति के बाद ब्रिटिश सरकार ने महसूस किया कि भारत में शासन चलाने के लिए भारतीयों का सहयोग लेना आवश्यक है। इस सहयोग नीति के तहत ब्रिटिश संसद ने 1861, 1892 और 1909 में तीन नए अधिनियम पारित किए। 186। का भारत परिषद अधिनियम भारतीय संवैधानिक और राजनीतिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण अधिनियम था।

इस अधिनियम की विशेषताएं इस प्रकार थीं:

  1. इसके द्वारा कानून बनाने की प्रक्रिया में भारतीय प्रतिनिधियों को शामिल करने की शुरुआत हुई। इस प्रकार वायसराय कुछ भारतीयों को विस्तारित परिषद में गेर सरकारी सदस्यों के रूप में नामांकित कर सकता था। 1862 में लॉर्ड कैनिग ने तीन भारतीयों बनारस के राजा पटियाला के महाराजा और सर दिनकर राव को विधान परिषद में मनोनीत किया।
  2. इस अधिनियम ने मद्रास और बबई प्रसिडसिया को विधायी शक्तिया पुन: देकर विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया की शुरुआत की। इस प्रकार इस अधिनियम ने रेगुलेटिंग एक्ट 1773 द्वारा शुरू हुई केंद्रीयकरण की प्रवृत्ति को उलट दिया जो 1833 के चार्टर अधिनियम के साथ ही अपने चरम पर पहुंच गयी थी। इस विधायी विकास की नीति के कारण 1937 तक प्रांतों को संपूर्ण आंतरिक स्वायत्तता हासिल हो गई।
  3. बंगाल, उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत और पंजाब में क्रमश: 1862, 1866 और 1897 में विधान परिषदों का गठन हुआ।
  4. इसने वायसराय को परिषद में कार्य संचालन के लिए अधिक नियम और आदेश बनाने की शक्तियां प्रदान की। इसने लॉर्ड कैनिंग द्वारा 1859 में प्रारंभ की गई पोर्टफोलियो प्रणाली को भी मान्यता दी। इसके अंतर्गत वायसराय की परिषद का एक सदस्य एक या अधिक सरकारी विभागों का प्रभारी बनाया जा सकता था तथा उसे इस विभाग में काउंसिल की ओर से अंतिम आदेश पारित करने का अधिकार था।
  5. इसने वायसराय को आपातकाल में बिना काउंसिल की संस्तुति के अध्यादेश जारी करने के लिए अधिकृत किया। ऐसे अध्यादेश की अवधि मात्र छह माह होती थी।

1892 का भारत परिषद अधिनियम

इस अधिनियम ने केंद्रीय और प्रांतीय विधान परिषदों दोनो में गैर सरकारी सदस्यों की नियुक्ति के लिए एक सीमित और परोक्ष रूप से चुनाव का प्रावधान किया हालाकि ‘चुनाव’ शब्द का अधिनियम में प्रयोग नहीं हआ था।

  1. इसके माध्यम से केंद्रीय और प्रांतीय विधान परिषदों में अतिरिक्त (गैरसरकारी) सदस्यों की संख्या बढ़ाई गई. हालांकि बहुमत सरकारी सदस्यों का ही रहता था।
  2. इसने विधान परिषदों के कार्यों में वृद्धि कर उन्हें बजट पर बहस करने और कार्यपालिका के प्रश्नों का उत्तर देने के लिए अधिकृत किया।
  3. इसमें केंद्रीय विधान परिषद्‌ और बंगाल चैम्बर ऑफ कॉमर्स में गैर-सरकारी सदस्यों के नामांकन के लिए वायसराय की शक्तियों का प्रावधान था। इसके अलावा प्रांतीय विधान परिषदों में गवर्नर को जिला परिषद, नगरपालिका, विश्वविद्यालय, व्यापार संघ, जमींदारों और चेम्बर ऑफ कॉमर्स की सिफारिशों पर गैर-सरकारी सदस्यों को नियुक्त करने की शक्ति थी।

इसे निश्चित निकायों की सिफारिश पर की जाने वाली नामांकन की प्रक्रिया कहा गया।”

1909 का भारत परिषद अधिनियम

इस अधिनियम को मॉर्ले-मिंटो सुधार के नाम से भी जाना जाता है (उस समय लॉर्ड मॉले इंग्लैंड में भारत के राज्य सचिव थे और लॉर्ड मिटो भारत में वायसराय थे)।

इस अधिनियम की विशेषताएं इस प्रकार थीं:

  1. इसने केंद्रीय और प्रातीय विधानपरिषदों के आकार में काफी वृद्धि की। केंद्रीय परिषद में इनकी संख्या 16 से 60 हो गई। प्रांतीय विधान परिषदों में इनकी संख्या एक समान नहीं थी।
  2. इसने केंद्रीय परिषद में सरकारी बहुमत को बनाए रखा लेकिन प्रांतीय परिषदों में गैर-सरकारी सदस्यों के बहुमत की अनुमति थी।
  3. इसने दोनों स्तरों पर विधान परिषदों के कार्यों का दायरा बढ़ाया। उदाहरण के तौर पर अनुपूरक प्रश्न पूछना, बजट पर संकल्प रखना आदि।
  4. इस अधिनियम के अंतर्गत पहली बार किसी भारतीय को वायसराय और गवर्नर की कार्यपरिषद के साथ एसोसिएशन बनाने का प्रावधान किया गया।सतेंद्र प्रसाद सिन्हा वायसराय की कार्यपालिका परिषद के प्रथम भारतीय सदस्य बने। उन्हें विधि सदस्य बनाया गया था।
  5. इस अधिनियम ने पृथक निर्वाचन के आधार पर मुस्लिमों के लिए सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व का प्रावधान किया। इसके अंतर्गत मुस्लिम सदस्यों का चुनाव मुस्लिम मतदाता ही कर सकते थे। इस प्रकार इस अधिनियम ने सांप्रदायिकता को वैधानिकता प्रदान की और लॉर्ड मिंटो को सांप्रदायिक निर्वाचन के जनक केरूप में जाना गया।
  6. इसने प्रेसिडे सी कॉरपोरेशन चैम्बर ऑफ कॉमर्स, विश्वविद्यालयों और जमींदारों के लिए अलग प्रतिनिधित्व का प्रावधान भी किया।

भारत शासन अधिनियम, 1919

20 अगस्त 1917 को ब्रिटिश सरकार ने पहली बार घोषित किया कि उसका उद्देश्य भारत में क्रमिक रूप से उत्तरदायी सरकार की स्थापना करना था। क्रमिक रूप से 1919 में भारत शासन अधिनियम बनाया गया, जो 1921 से लागू हुआ। इस कानून को मॉपण्टेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार भी कहा जाता है (मॉण्टेश्य भारत के राज्य सचिव थे, जबकि चेम्सफोर्ड भारत के वायसराय थे)।

इस अधिनियम की विशेषताएं इस प्रकार थीं:

  1. केंद्रीय और प्रांतीय विषयों की सूची की पहचान कर एवं उन्हें पृथक्‌ कर राज्यों पर केंद्रीय नियंत्रण कम किया गया। केंद्रीय और प्रांतीय विधान परिषदों को, अपनी सूचियों के विषयों पर विधान बनाने का अधिकार प्रदान किया गया। लेकिन सरकार का ढांचा केंद्रीय और एकात्मक ही बना रहा।
  2. इसने प्रांतीय विषयों को पुन: दो भागों में विभक्त किया हस्तांतरित और आरक्षित। हस्तांतरित विषयों पर गवर्नर का शासन होता था और इस कार्य में वह उन मंत्रियों की सहायता लेता था, जो विधान परिषद के प्रति उत्तरदायी थे। दूसरी ओर आरक्षित विषयों पर गवर्नर कार्यपालिका परिषद की सहायता से शासन करता था, जो विधान परिषद के प्रति उत्तरदायी नहीं थी। शासन की इस दोहरी व्यवस्था को द्वैध (यूनानी शब्द डाई-आर्की से व्युत्पन्न) शासन व्यवस्था कहा गया। हालांकि यह व्यवस्था काफी हृद तक असफल ही रही।
  3. इस अधिनियम ने पहली बार देश में द्विसदनीय व्यवस्था और प्रत्यक्ष निर्वाचन की व्यवस्था प्रारंभ की। इस प्रकार भारतीय विधान परिषद के स्थान पर द्विसदनीय व्यवस्था यानी राज्यसभा और लोकसभा का गठन किया गया। दोनों सदनों के बहुसंख्यक सदस्यों को प्रत्यक्ष निर्वाचन के माध्यम से निर्वाचित किया जाता था।
  4. इसके अनुसार, वायसराय की कार्यकारी परिषद के छह सदस्यों में से (कमांडर-इन-चीफ को छोड़कर) तीन सदस्यों का भारतीय होना आवश्यक था।
  5. इसने सांप्रदायिक आधार पर सिखों, भारतीय ईसाइयों, आंग्ल-भारतीयों और यूरोपियों के लिए भी पृथक निर्वाचन के सिद्धांत को विस्तारित कर दिया।
  6. इस कानून न संपत्ति कर या शिक्षा के आधार पर सीमित संख्या में लोगों का मताधिकार प्रदान किया।
  7. इस कानून ने लंदन में भारत क उच्चायुक्त के कार्यालय का सृजन किया और अब तक भारत सचिव द्वारा किए जा रहे कुछ कार्यों का उच्चायुक्त को स्थानातरित कर दिया गया।
  8. इससे एक लोक सेवा आयोग का गठन किया गया। अत: 926 में सिविल सेवकों की भर्ती के लिए केंद्रीय लोक सेवा आयोग का गठन किया गया।
  9. इसने पहली बार केंद्रीय बजट को राज्यों के बजट से अलग कर दिया और राज्य विधानसभाओं को अपना बजट स्वयं बनाने के लिए अधिकृत कर दिया।
  10. इसके अंतर्गत एक वैधानिक आयोग का गठन किया गया, जिसका कार्य दस वर्ष बाद जांच करने के बाद अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करना था।

साइमन आयोग

ब्रिटिश सरकार ने नवंबर 1927 में (यानि निर्धारित समय से दो वर्ष पूर्व ही) नए संविधान में भारत की स्थिति का पता लगाने के लिए सर जॉन साइमन के नेतृत्व में सात सदस्यीय वैधानिक आयोग के गठन की घोषणा की। आयोग के सभी सदस्य ब्रिटिश थे, इसलिए सभी दलों ने इसका बहिष्कार किया। आयोग ने 1930 में अपनी रिपोर्ट पेश की तथा द्वैध शासन प्रणाली, राज्यों में सरकारों का विस्तार, ब्रिटिश भारत के संघ की स्थापना एवं सांप्रदायिक निर्वाचन व्यवस्था को जारी रखने आदि की सिफारिशें की।

आयोग के प्रस्तावों पर विचार करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने ब्रिटिश सरकार, ब्रिटिश भारत और भारतीय रियासतों के प्रतिनिधियों के साथ तीन गोलमेज सम्मेलन किए। इन सम्मेलनों में हुयी चर्चा के आधार पर, ‘संवैधानिक सुधारों पर एक श्वैत-पत्र’ तैयार किया गया, जिसे विचार के लिए ब्रिटिश संसद की संयुक्त प्रवर समिति के समक्ष रखा गया। इस समिति की सिफारिशों को (कुछ संशोधनों के साथ) भारत परिषद अधिनियम, 1935 में शामिल कर दिया गया।

सांप्रदायिक अवॉर्ड

ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैमजे मैकडोनाल्‍्ड ने अगस्त 1932 में अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व पर एक योजना की घोषणा की। इसे कम्युनल अवॉर्ड या सांप्रदायिक अवॉर्ड के नाम से जाना गया। अवॉर्ड ने न सिर्फ मुस्लिमों, सिख, ईसाई, यूरोपियनों और आंग्ल-भारतीयों के लिए अलग निर्वाचन व्यवस्था का विस्तार किया बल्कि इसे दलितों के लिए भी विस्तारित कर दिया गया।

दलितों के लिए अलग निर्वाचन व्यवस्था से गांधी बहुत व्यधित हुए और उन्होंने अवॉर्ड में संशोधन के लिए पूना की यरवदा जेल में अनशन प्रारंभ कर दिया। अंततः कांग्रेस नेताओं और दलित नेताओं के बीच एक समझौता हुआ, जिसे पूना समझौते के नाम से जाना गया। इसमें संयुक्त हिंदू निर्वाचन व्यवस्था को बनाए रखा गया और दलितों के लिए स्थान भी आरक्षित कर दिए गए।

भारत शासन अधिनियम, 1935

यह अधिनियम भारत में पूर्ण उत्तरदायी सरकार के गठन में एक पील का पत्थर साबित हुआ। यह एक लंबा और विस्तृत दस्तावेज था जिसमें 321 धाराएं और 10 अनुसूचियां थीं।

इस अधिनियम की विशेषताएं इस प्रकार थीं:

  1. इसने अखिल भारतीय संघ की स्थापना की, जिसमें राज्य और रियासतों को एक इकाई की तरह माना गया। अधिनियम ने केंद्र और इकाइयों के बीच तीन सूचियों-संघीय सूची (59) विषय), राज्य सूची (54 विषय) और समवर्ती सूची (दोनों के लिये, 36 विषय) के आधार पर शक्तियों का बंटवारा कर दिया। अवशिष्ट शक्तियां वायसराय को दे दी गईं। हालांकि यह संघीय व्यवस्था कभी अस्तित्व में नहीं आई क्योंकि देसी रियासतों ने इसमें शामिल होने से इनकार कर दिया था।
  2. इसने प्रांतों में द्वैध शासन व्यवस्था समाप्त कर दी तथा प्रांतीय स्वायत्तता का शुभारंभ किया। राज्यों को अपने दायरे में रह कर स्वायत्त तरीके से तीन पृथक्‌ क्षेत्रों में शासन का अधिकार दिया गया। इसके अतिरिक्त अधिनियम ने राज्यों में उत्तरदायी सरकार की स्थापना की। यानि गवर्नर को राज्य विधान परिषदों के लिए उत्तरदायी मंत्रियों की सलाह पर काम करना आवश्यक था। यह व्यवस्था 1937 में शुरू की गई और 1939 में इसे समाप्त कर दिया गया।
  3. इसने केंद्र में द्रैध शासन प्रणाली का आरंभ किया। परिणामत: संघीय विषयों को स्थानांतरित और आरक्षित विषयों में विभकत करना पड़ा। हालांकि यह प्रावधान कभी लागू नहीं हो सका।
  4. इसने 11 राज्यों में से छह में द्विसदनीय व्यवस्था प्रारंभ की। इस प्रकार, बंगाल, बंबई, मद्रास, बिहार, संयुक्त प्रांत और असम में द्विसदनीय विधान परिषद्‌ और विधान सभा बन गईं। हालांकि इन पर कई प्रकार के प्रतिबंध थे।
  5. इसने दलित जातियों, महिलाओं और मजदूर वर्ग के लिए अलग से निर्वाचन की व्यवस्था कर सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व व्यवस्था का विस्तार किया।
  6. इसने भारत शासन अधिनियम, 1858 द्वारा स्थापित भारत परिषद को समाप्त कर दिया। इंग्लैंड में भारत सचिव को सलाहकारों की टीम मिल गई।
  7. इसने मताधिकार का विस्तार किया। लगभग दस प्रतिशत जनसंख्या को मत का अधिकार मिल गया।
  8. इसके अंतर्गत देश की मुद्रा और साख पर नियंत्रण के लिये भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना की गई।
  9. इसने न केवल संघीय लोक सेवा आयोग की स्थापना की बल्कि प्रांतीय सेवा आयोग और दो या अधिक राज्यों के लिए संयुक्त सेवा आयोग की स्थापना भी की।
  10. इसके तहत 1937 में संघीय न्यायालय की स्थापना हुई।

भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947

20 फरवरी, 1947 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने घोषणा की कि 30 जून, 1947 को भारत में ब्रिटिश शासन समाप्त हो जाएगा। इसके बाद सत्ता उत्तरदायी भारतीय हाथों में सौंप दी जाएगी। इस घोषणा पर मुस्लिम लीग ने आंदोलन किया और भारत के विभाजन की बात कही। 3 जून, 1947 को ब्रिटिश सरकार ने फिर स्पष्ट किया कि 1946 में गठित संविधान सभा द्वारा बनाया गया संविधान उन क्षेत्रों पर लागू नहीं होगा, जो इसे स्वीकार नहीं करेंगे। उसी दिन 3 जून, 1947 को वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने विभाजन की योजना पेश की, जिसे माउंटबेटन योजना कहा गया। इस योजना को कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने स्वीकार कर लिया। इस प्रकार भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 बनाकर उसे लागू कर दिया गया।

इस अधिनियम की विशेषताएं इस प्रकार थीं:

  1. इसने भारत में ब्रिटिश राज समाप्त कर 5 अगस्त, 1947 को इसे स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र घोषित कर दिया।
  2. इसने भारत का विभाजन कर दो स्वतन्त्र डोमिनयनों-संप्रभु राष्ट्र भारत और पाकिस्तान का सृजन किया, जिन्हें ब्रिटिश राष्ट्रमंडल से अलग होने की स्वतंत्रता थी।
  3. इसने वायसराय का पद समाप्त कर दिया और उसके स्थान पर दोनों डोमिनयन राज्यों में गवर्नर-जनरल के पद का सृजन किया, जिसकी नियुक्ति नए राष्ट्र की कैबिनेट की सिफारिश पर ब्रिटेन के ताज को करनी था। इन पर ब्रिटेन की सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होना था।
  4. इसने दोनों डोमिनियन राज्यों में संविधान सभाओं को अपने देशों का संविधान बनाने और उसके लिए किसी भी देश के संविधान को अपनाने की शक्ति दी। सभाओं को यह भी शक्ति थी कि वे किसी भी ब्रिटिश कानून को समाप्त करने के लिए कानून बना सकती थीं, यहां तक कि उन्हें स्वतंत्रता अधिनियम को भी निरस्त करने का अधिकार था।
  5. इसने दोनों डोमिनयन राज्यों की संविधान सभाओं को यह शक्ति प्रदान की गई कि वे नए संविधान का निर्माण एवं कार्यान्वित होने तक अपने अपने सम्बश्चित क्षेत्रों के लिए विधानसभा बना सकती थीं। 5 अगस्त, 1947 के बाद ब्रिटिश संसद में पारित हुआ कोई भी अधिनियम दोनों डोमिनयनों पर तब तक लागू नहीं होगा, जब तक कि दोनों डोमिनियन इस कानन को मानने के लिए कानून नहीं बना लेंगे।
  6. इस कानून ने ब्रिटेन में भारत सचिव का पद समाप्त कर दिया। इसकी सभी शक्तिया राष्ट्रमंडल मामलों के राज्य सचिव को स्थानांतरित कर दी गई।
  7. इसने 5 अगस्त, 1947 से भारतीय रियासतों पर ब्रिटिश संप्रभुता की समाप्ति की भी घोषणा की। इसके साथ ही आदिवासी क्षेत्र समझौता संबंधों पर भी ब्रिटिश हस्तक्षेप समाप्त हो गया।
  8. इसने भारतीय रियासतों को यह स्वतंत्रता दी कि वे चाहें तो भारत डोमिनियन या पाकिस्तान डोमिनियन के साथ मिल सकती हैं या स्वतंत्र रह सकती हैं।
  9. इस अधिनियम ने नया संविधान बनने तक प्रत्येक डोमिनियन में शासन संचालित करने एवं भारत शासन अधिनियम, 935 के तहत उनकी प्रांतीय सभाओं में सरकार चलाने की व्यवस्था की। हालांकि दोनों डोमिनियन राज्यों को इस कानून में सुधार करने का अधिकार था।
  10. इसने ब्रिटिश शासक को विधेयकों पर मताधिकार और उन्हें स्वीकृत करने के अधिकार से वंचित कर दिया। लेकिन ब्रिटिश शासक के नाम पर गवर्नर जनरल को किसी भी विधेयक को स्वीकार करने का अधिकार प्राप्त था।
  11. इसके अंतर्गत भारत के गवर्नर जनरल एवं प्रांतीय गवर्नरों को राज्यों का संवैधानिक प्रमुख नियुक्त किया गया। इन्हें सभी मामलों पर राज्यों की मंत्रिपरिषद्‌ के परामर्श पर कार्य करना होता था।
  12. इसने शाही उपाधि से ‘भारत का सम्राट’ शब्द समाप्त कर दिया।
  13. इसने भारत के राज्य सचिव द्वारा सिविल सेवा में नियुक्तियां करने और पदों में आरक्षण करने की प्रणाली समाप्त कर दी। 15 अगस्त, 1947 से पूर्व के सिविल सेवा कर्मचारियों को वही सुविधाएं मिलती रहीं, जो उन्हें पहले से प्राप्त थीं।
  14. 15 अगस्त, 1947 की मध्य रात्रि को भारत में ब्रिटिश शासन का अंत हो गया और समस्त शक्तियां दो नए स्वतंत्र डोमिनियनों-भारत और पाकिस्तान’ को स्थानांतरित कर दी गईं। लॉर्ड माउंटबेटन नए डोमिनियन भारत के प्रथम गवर्नरजनरल बने। उन्होंने जवाहरलाल नेहरू को भारत के पहले प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलाई। 946 में बनी संविधान सभा को स्वतंत्र भारतीय डोमिनियन की संसद के रूप में स्वीकार कर लिया गया।

अंतरिम सरकार ( 1946 )

क्र.स.सदस्यधारित विभाग
1जवाहरलाल नेहरूपरिषद के उपाध्यक्ष, राष्ट्रमंडल संबध तथा विदेशी मामले
2सरदार वल्‍लभभाई पटेलगृह, सूचना एवं प्रसारण
3डॉ. राजेंद्र प्रसादखाद्य एवं कृषि
4जॉन मथाईउद्योग एवं नागरिक आपूर्ति
5जगजीवन रामश्रम
6सरदार बलदेव सिंहरक्षा
7सी.एच. भाभाकार्य, खान एवं ऊर्जा
8लियाकत अली खांवित्त
9अर्द्व-रब-निश्तारहडाक एवं वायु
10आसफ अलीरेलवे एवं परिवहन
11सी. राजगोपालाचारीशिक्षा एवं कला
12आई.आई. चुंदरीगरवाणिज्य
13गजनफर अली खानस्वास्थ्य
14जोगेंद्र नाथ मंडलविधि

नोट: अंतरिम सरकार के सदस्य वायसराय की कार्यकारी परिषद के सदस्य थे। वायसराय परिषद का प्रमुख बना रहा, लेकिन जवाहरलाल नेहरू को परिषद का उपाध्यक्ष बनाया गया।

स्वतंत्र भारत का पहला मंत्रिमंडल (1947)

क्र.स.सदस्यधारित विभाग
1जवाहरलाल नेहरूप्रधानमंत्री; राष्ट्रमंडल तथा विदेशी मामले; वैज्ञानिक शोध
2सरदार वल्‍लभभाई पटेलगृह, सूचना एवं प्रसारण; राज्यों के मामले
3डॉ. राजेंद्र प्रसादखाद्य एवं कृषि
4जॉन मथाईरेलवे एवं परिवहन
5जगजीवन रामश्रम
6सरदार बलदेव सिंहरक्षा
7सी.एच. भाभावाणिज्य
8मौलाना अबुल कलाम आजादशिक्षा
9आर.के. षणमुगम शेट्टीवित्त
10डॉ. बी.आर. अंबेडकरविधि
11रफी अहमद किदवईसंचार
12डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जीउद्योग एवं आपूर्ति
13राजकुमारी अमृत कौरस्वास्थ्य
14नरहर विष्णु गाडगिलकार्य, खान एव ऊर्जा

 

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