केंद्र व राज्य के बीच प्रशासनिक संबंध की व्याख्या

केंद्र व राज्य के बीच प्रशासनिक संबंध

संविधान के भाग XI में अनुच्छेद 256 से 263 तक केंद्र व राज्य के बीच प्रशासनिक संबंध की व्याख्या की गयी है। इसी मुद्दे पर कई अन्य अनुच्छेद भी हैं।

1. कार्यकारी शक्तियों का बंटवारा

केंद्र व राज्यों के बीच कुछ मामलों को छोड़कर विधायी व कार्यकारी शक्तियों का बंटवारा किया गया है। इस प्रकार, केंद्र की कार्यपालक शक्तियां पूरे भारत में विस्तृत हैं

  • उस मामले में जिसमें संसद को विशेष विधायी शक्तियां प्राप्त हैं (अर्थात्‌ संघ सूची के विषय)
  • किसी संधि या समझौते के तहत अधिकार, प्राधिकरण और न्याय क्षेत्र का कार्य।

इसी तरह राज्य की कार्यपालक शक्तियां, राज्य की सीमाओं तक विस्तृत हैं (अर्थात्‌ राज्य सूची के विषय)।

वे विषय, जिन पर केन्द्र एवं राज्य दोनों को विधान निर्माण की शक्ति प्राप्त है (अर्थात्‌ समवर्ती सूची के विषय), उनमें कार्यकारी शक्तियां राज्यों में निहित होती हैं। सिवाए तब जब कोई सांविधानिक उपबंध या संसदीय विधि इसे विशिष्टतः केन्द्र को प्रदत्त करे। इस प्रकार समवर्ती विषय संबंधी कोई नियम यद्यपि संसद द्वारा निर्मित किया गया हो, परन्तु उसे राज्य द्वारा कार्यनिष्पादित किया जाता है, सिवाए तब जब संविधान या संसद अन्यथा निदेशित करे।

2. राज्य एवं केंद्र के दायित्व

संविधान ने राज्यों की कार्यकारी शक्तियों के संबंध में उन पर दो प्रतिबंध आरोपित किये हैं, जिससे इस संबंध में केन्द्र को कार्यकारी शक्तियों के संबंध में असीमित अधिकार प्राप्त होते हैं।

इस प्रकार प्रत्येक राज्य की कार्यकारी शक्ति को इस प्रकार उपयोग किया जा सकता है-

  • संसद द्वारा निर्मित किसी विधान का अनुपालन सुनिश्चित करना तथा राज्यों से संबंधित कोई वर्तमान विधान
  • राज्य में केन्द्र की कार्यपालिका शक्ति को बाधित या इसके संबंध में पूर्वाग्रह न रखना।

इनमें से पहला, जहां राज्यों पर संधारण दायित्व है, वहीं दूसरा राज्यों पर विशेष कि केन्द्र की कार्यपालिका शक्ति को बाधित न करें।

दोनों ही मामलों में केंद्र की कार्यकारी शक्तियां, इस सीमा तक विस्तृत हैं कि वे अप्रत्यक्ष रूप से राज्यों को यह निर्देश देती हैं कि केंद्र का कानून उनके कानून से ज्यादा मान्य होगा। केंद्र के निदेश प्रकृति में बाध्यकारी से हैं।

इस प्रकार अनुच्छेद 365 कहता है कि यदि कोई राज्य केंद्र द्वारा दिये गये निर्देश का पालन करने में (या प्रभावी बनाने में) असफल रहता है तो ऐसी दशा में राष्ट्रपति इस आधार पर इस मामले को अपने हाथ में ले सकते हैं कि अमुक राज्य ने संविधान की मंशा या दिशा-निर्देशों के अनुसार कार्य नहीं किया है। इसका अभिप्राय है कि ऐसी दशा में अनुच्छेद 365 के अंतर्गत राज्य पर राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है।

3. राज्यों को केंद्र के निर्देश

इन दो मामलों के अतिरिक्त केंद्र को यह अधिकार है कि वह राज्य को निम्नलिखित मामलों पर अपनी कार्यकारी शक्तियों के प्रयोग के लिए निर्देश दे सकता है:

  1. संचार के साधनों को बनाए व उनका रख-रखाव करे।
  2. राज्य में रेलवे संपत्ति की रक्षा करे।
  3. प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर राज्य से संबंधित भाषायी अल्पसंख्यक समूह के बच्चों के लिए मातृभाषा सीखने की व्यवस्था करे।
  4. राज्य में अनुसूचित जनजातियों के कल्याण के लिए विशेष योजनाएं बनाए और उनका क्रियान्वयन करे।

इन मामलों में अनुच्छेद 365 के अंतर्गत केंद्र के निर्देश भी राज्यों पर लागू होते हैं।

4. कार्यों का पारस्परिक प्रतिनिधित्व

केंद्र और राज्यों के मध्य विधायी शक्तियों का विभाजन कठोर है। इस तरह केंद्र अपनी विधायी शक्ति राज्य को नहीं दे सकता, जबकि कोई इकलौैता राज्य, राज्य सूची पर संसद से कानून बनाने को नहीं कह सकता। कार्यपालिका शक्तियों का बंटवारा सामान्यत: विधायी शक्तियों के बंटवारे का ही अनुसरण करता है। परन्तु कार्यपालिका क्षेत्र में ऐसा कठोर बंटवारा टकराव को जन्म दे सकता है। संविधान ने कठोरता एवं विभेदता को हटाने के लिए एक कार्यकारी अंतर-सरकारी प्रतिनिधिमंडल बनाया।

इसी तरह राष्ट्रपति, राज्य सरकार की सहमति पर केंद्र के किसी कार्यकारी कार्य को उसे सौंप सकता है। इसी तरह एक राज्य का राज्यपाल, केंद्र की सहमति पर उसके कार्य को राज्य में कराता है। आपसी समझौते का यह मामला सशर्त या बिना शर्त हो सकता है।”

संविधान केंद्र, कार्यकारी कार्यों को राज्य द्वारा निष्पादित करने के संबंध में यह प्रावधान करता है कि केन्द्र, राज्यों की बिना सहमति के परिस्थितिवश ऐसा कर सकते हैं। किंतु ऐसी स्थिति में यह कार्य संसद द्वारा किया जायेगा, न कि राष्ट्रपति द्वारा।

इस प्रकार संघीय सूची के विषय पर संसद द्वारा बनाया गया कानून केन्द्र के संबंध में शक्तियों का आवंटन एवं करारोपण का अधिकार राज्य को उसकी सहमति के बिना दे सकता है। यद्यपि यही कार्य राज्यों द्वारा नहीं किया जा सकता है।

उक्त व्याख्या से स्पष्ट है कि केन्द्र एवं राज्यों के मध्य पारस्परिक सहयोग या तो आपसी सहमति या विधान के द्वारा स्थापित किया जा सकता है। जहां केंद्र दोनों रीतियों का प्रयोग कर सकता है, वहीं राज्य केवल प्रथम रीति को ही अपना सकता है।

5. केंद्र व राज्यों के बीच सहयोग

संविधान में केंद्र व राज्य के बीच सहयोग एवं समन्वय के लिए निम्नलिखित उपबंध हैं:

  • संसद किसी अंतरराज्यीय नदी और नदी घाटी के पानी के प्रयोग, वितरण और नियंत्रण के संबंध में किसी विवाद या शिकायत पर न्याय निर्णयन दे सकती है।
  • राष्ट्रपति (अनुच्छेद 263 के तहत) केंद्र व राज्य के बीच सामूहिक महत्व के विषयों की जांच व बहस के लिए अंतर्रज्यीय परिषद का गठन कर सकता है। इस तरह की परिषद 1990 में बनाई गई थी।
  • केंद्र एवं राज्यों में लोक अधिनियमों, रिकॉर्डों एवं न्यायिक प्रक्रिया के संचालन के लिये भारत के भू क्षेत्र को पूर्ण विश्वास एवं साख प्रदान की जानी चाहिए।
  • संसद संवैधानिक उद्देश्य से अंतर्राज्यीय व्यापार, वाणिज्य एवं अंतर्सबंध की स्वतंत्रता व्यवस्था के तहत किसी प्राधिकरण का गठन कर सकती है।

6. अखिल भारतीय सेवाएं

किसी अन्य संघ की तरह केंद्र एवं राज्य की सार्वजनिक सेवाएं बंटी हुई हैं, जिन्हें केंद्रीय सेवाएं या राज्य सेवाएं कहा जाता है। इसमें अखिल भारतीय सेवाएं आई.ए.एस.. आई.पी.एस. और आई.एफ.एस. शामिल हैं। इन सेवाओं के अधिकारी केन्द्र और राज्यों के अंतर्गत उच्च पदों पर अपनी सेवाएं प्रदान करते हैं। परन्तु इनकी नियुक्ति और प्रशिक्षण केन्द्र द्वारा किया जाता है।

इन सवाओ को केंद्र एवं राज्यों द्वारा सपक्त रूप से नियंत्रित किया जाता है। इन पर पूर्ण नियंत्रण केंद्र सरकार का एव तात्कालिक नियंत्रण राज्य सरकार का रहता है।

इन्हें 1947 में भारतीय सिविल सेवा (आईसीएस) के स्थान पर आई.ए.एस. और भारतीय पुलिस (आईपी) के स्थान पर आईपीएस नाम दिया गया, जिसे संविधान में ‘अखिल भारतीय सेवाओं’ के रूप में मान्यता दी गई। 1966 में भारतीय वन सेवा (IFS) को तीसरी अखिल भारतीय सेवा बनाया गया। संविधान का अनुच्छेद 312 सस को राज्यसभा के प्रस्ताव के आधार पर नई अखिल भारतीय सेवा के गठन का अधिकार प्रदान करता है।

इन तीनों अखिल भारतीय सेवाओं में से प्रत्येक का आवंटन राज्यों की आवश्यकतानुरूप किया जाता है तथा इनमें से प्रत्येक में समान स्तर के अधिकार होते हैं एवं उन्हें समान वेतन प्रदान किया जाता है।

यद्यपि अखिल भारतीय सेवाएं राज्य की स्वायत्तता और संरक्षण को सीमित कर संविधान के संघीय सिद्धांत का उल्लंघन करती हैं। इन सेवाओं का समर्थन निम्नांकित आधार पर किया जाता है-

  • केंद्र एवं राज्य में उच्च स्तरीय प्रशासन के रख-रखाव में
  • पूरे देश में प्रशासनिक एकीकरण व्यवस्था सुनिश्चित करने में एवं
  • केंद्र एवं राज्यों के सामूहिक हितों के संबंध में सहयोग एवं संयुक्त कार्यों में

संविधान सभा में अखिल भारतीय सेवाओं को उचित बताते हो डॉ. अम्बेडकर ने कहा था कि ‘संघीय व्यवस्था में द्वैध नीति को सभी संघीय व्यवस्थाओं में अपनाया गया है। सभी संघीय व्यवस्थाओं में संघीय सिविल सेवा एवं प्रांतीय सिविल सेवायें पायी जाती हैं।

भारतीय संघ में भी द्वैध नीति तथा दो प्रकार की सेवायें होगी किन्तु इसका एक अपवाद भी होगा। यह पाया गया कि प्रत्येक देश में प्रशासन में कछ विशेष पद, प्रशासन के स्तर को बनाये रखने के लिये रणनीतिक पद कहे जाते हैं।

नि:संदेह प्रशासन का स्तर इन रणनीतिक पदों पर नियुक्त किये जाने वाले लोक सेवकों की दक्षता पर निर्भर करता है। संविधान ने भी बिना किसी भेदभाव के राज्यों को यह अधिकार दिया है कि वे अपनी लोक सेवाओं का गठन करें। अखिल भारतीय सेवा हेतु अखिल भारतीय स्तर पर इनका आयोजन किया जाये। इसके द्वारा चयनित प्रशासकों हेतु अखिल भारतीय सेवाओं के समान वेतन-भत्ते हों तथा इन्हें रणनीतिक या मुख्य पदों पर नियुक्ति के समान अवसर होने चाहिये।”

7. लोक सेवा आयोग

लोक सेवा आयोग के क्षेत्र में केंद्र राज्य संबध निगम्नवत हैं:

  • राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष व सदस्यों की नियक्ति यदृपि राज्यपाल द्वारा की जाती है लेकिन उन्हें सिर्फ राष्ट्रपति द्वारा हटाया जा सकता है।
  • संसद, संयुक्त राज्य लोक सेवा आयोग (जेएसपीएससी का गठन संबंधित विधानमंडला के अनुरोध पर कर सकती है।) इसके अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है।
  • राज्यपाल के अनुरोध एवं राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) राज्य की आवश्यकतानमा कार्य कर सकता है।
  • संघे लोक सेवा आयोग योजनाओं के क्रियान्वयन, संयुक्त भर्ती आदि पर राज्यों की सहायता (दो या अधिक राज्यों के अनुरोध पर) करता है।

8. एकीकृत न्याय व्यवस्था

यद्यपि भारत में दोहरी राजनीतिक व्यवस्था अपनायी गयी है तथापि न्याय के प्रशासन में द्वैध नीति नहीं है। दूसरी ओर संविधान ने एकीकृत न्याय व्यवस्था की स्थापना की है। इसमें उच्चतम न्यायालय सर्वोच्च स्तर पर एवं उच्च न्यायालय इसके नीचे हैं। यह एकल व्यवस्था ही केन्द्र एवं राज्य दोनों के विधानों का अनुपालन सुनिश्चित करती है। यह व्यवस्था पारस्परिक टकराव एवं भ्रांति को समाप्त करने हेतु अपनायी गयी है।

उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति, राष्ट्रपति द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एवं संबंधित राज्य के राज्यपाल के परामर्श से की जाती है। इन्हें राष्ट्रपति द्वारा स्थानांतरित किया जा सकता है एवं पद से हटाया भी जा सकता है।

संसद, विधान बनाकर दो या दो से अधिक राज्यों के लिये एक ही उच्च न्यायालय की स्थापना कर सकती है। उदाहरणार्थ महाराष्ट्र एवं गोवा या पंजाब एवं हरियाणा का एक ही उच्च न्यायालय है।

8. आपातकालीन अवधि में संबंध

राष्ट्रीय आपातकाल के समय (अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत), केन्द्र को इस बात का अधिकार प्राप्त हो जाता है कि वह किसी भी विषय पर राज्य या राज्यों को निर्देशित कर सकता है। इस प्रकार इस स्थिति में राज्य पूर्णतया केन्द्र के नियंत्रणाधीन हो जाते हैं। यद्यपि उन्हें निलंबित नहीं किया जाता।

जब राज्य में राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत) लागू किया जाता है तो राज्य के कार्यकारी विषयों के संबंध में राष्ट्रपति स्वयं निर्देश दे सकता है। इस  स्थिति में राज्य या राज्यपाल या अन्य कार्यकारी प्राधिकारी की समस्त शक्तिया राष्ट्रपति ग्रहण कर सकता है।

वित्तीय आपातकाल की स्थिति में (अनुच्छेद 360 क अन्तर्गत) केन्द्र वित्तीय परिसंपत्तियों के अधिग्रहण हेतु राज्य या को निर्देशित कर सकता है तथा राज्य में कार्यरत सरकारी कर्मचारियों के वेतन में कटौती करने का आदेश दे सकते हैं।

9. अन्य उपबंध

संविधान, राज्य के प्रशासन पर केंद्र के नियंत्रण को लेकर निम्नलिखित अन्य उपबंध करता है:

अनुच्छेद 355 केंद्र पर दो कर्तव्यों को लागू करता है

  • बाह्य आक्रमण एवं आंतरिक अशांति से प्रत्येक राज्य की संरक्षा करे और
  • यह सुनिश्चित करना कि प्रत्येक राज्य की सरकार संविधान की व्यवस्थाओं के अनुरूप कार्य कर रही है या नहीं।

राज्यों के राज्यपालों को राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है। उसका कार्यकाल राष्ट्रपति की दया पर निर्भर करता है। राज्य का सांविधानिक अध्यक्ष होने के अतिरिक्त राज्यपाल केन्द्र के ऐजेन्ट के रूप में कार्य करता है। वह राज्य के प्रशासनिक मामलों की रिपोर्ट समय-समय पर केंद्र को देता है।

राज्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति यद्यपि राज्यपाल द्वारा की जाती है लेकिन उसे राष्ट्रपति द्वारा ही हटाया जा सकता है।

संविधानेत्तर युक्तियां

उपरोक्त वर्णित संवैधानिक युक्तियों के अतिरिक्त केन्द्र एवं राज्यों के मध्य सहयोग एवं समन्वयन हेतु कई अन्य संविधानेत्तर युक्तियां भी हैं। इनमें बड़ी संख्या में परामर्शदात्री निकाय एवं केन्द्र के स्तर पर आयोजित सम्मेलन आदि शामिल हैं।

अब नीति आयोग गैर-संवैधानिक परामर्शदात्री निकायों में शामिल हैं-

  • नीति आयोग’ (जिसने योजना आयोग का स्थान लिया),
  • राष्ट्रीय एकता परिषद,
  • केन्द्रीय स्वास्थ्य परिषद और परिवार कल्याण,
  • केन्द्रीय स्थानीय शासन परिषद,
  • क्षेत्रीय परिषदें।’,
  • उत्तर पूर्व परिषद,
  • केन्द्रीय भारतीय चिकित्सा परिषद,
  • केन्द्रीय होम्योपैथिक परिषद,
  • परिवहन विकास परिषद,
  • विश्वविद्यालय अनुदान आयोग इत्यादि।

केंद्र व राज्य के बीच प्रशासनिक संबंध के विकास हेतु या तो वार्षिक या आवश्यकतानुसार विभिन्न विषयों पर विचार-विमर्श किया जाता है। ये विषय इस प्रकार हैं-

  • राज्यपालों का सम्मेलन (इसकी अध्यक्षता राष्ट्रपति करता है),
  • मुख्यमंत्रियों का सम्मेलन (इसकी अध्यक्षता प्रधानमंत्री करता है),
  • मुख्य सचिवों का सम्मेलन (इसकी अध्यक्षता कैबिनेट सचिव करता है),
  • पुलिस महानिदेशकों का सम्मेलन,
  • मुख्य न्यायाधीशों का सम्मेलन (इसकी अध्यक्षता उच्चतम न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश करता है),
  • कुलपतियों का सम्मेलन,
  • गृह मंत्रियों का सम्मेलन, (इसकी अध्यक्षता केन्द्रीय गृह मंत्री करता है) एवं
  • विधि मंत्रियों का सम्मेलन (इसकी अध्यक्षता केंद्रीय विधि मंत्री करता है)।

केंद्र व राज्य के बीच प्रशासनिक संबंध से जुड़े अनुच्छेद: एक नजर में

अनुच्छेदविषय-वस्तु
256राज्यों तथा संघ की जिम्मेदारिया
257कतिपय मामलों में संघ का राज्यों के ऊपर नियंत्रण।
257 Aराज्यों के सहायतार्थ संघ के सशस्त्र बलों अथवा अन्य बलों की तैनाती (निरस्त)
258कतिपय मामलों में राज्यों को शक्ति प्रदान करने की संघ की शक्ति।
258 Aराज्यों की संघ को कार्य सौंपने की शक्ति।
259प्रथम अनुसूची के भाग-बी में राज्यों में सशस्त्र बल (निरस्त)।
260भारत के बाहर के भूभागों के संबंध में संघ का अधिकार क्षेत्र।
261सार्वजानिक क्रियाकलाप, अभिलेख तथा न्यायिक प्रक्रियाएं।
262अंतराज्यीय नदियों अथवा नदी-घाटियों के पानी से संबंधित विवादों के संबंध में न्याय निर्णय।
263अंतराज्यीय संबंधों से संबंधित प्रावधान।

 

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