स्वतंत्रता का अधिकार क्या है? अनुच्छेद 19 – 22

भारतीय सविंधान के भाग – 3 में अनुच्छेद 19-22 तक में नागरिकों को प्राप्त स्वतंत्रता का अधिकार (Right to freedom in hindi) का वर्णन है।

स्वतंत्रता का अधिकार (Right to freedom) अनुच्छेद 19 – 22

छह अधिकारों की रक्षा – अनुच्छेद 19

अनुच्छेद 19 सभी नागरिकों को छह अधिकारों की गारंटी देता है। ये हैं:

  1. वाक एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता।
  2. शांतिपूर्वक और निरायुध सम्मेलन का अधिकार।
  3. संगम संघ या सहकारी समितियां बनाने का अधिकार।
  4. भारत के राज्यक्षेत्र में सर्वत्र अबाध संचरण का अधिकार।
  5. भारत के राज्य क्षेत्र के किसी भाग में निर्बाध घूमने और बस जाने या निवास करने का अधिकार।
  6. कोई भी वृत्ति, व्यापार या कारोबार करने का अधिकार।

मूलतः अनुच्छेद 19 में 7 अधिकार थे, लेकिन संपत्ति को खरीदने, अधिग्रहण करने या बेच देने के अधिकार को 1978 में 44वें संशोधन अधिनियम के तहत समाप्त कर दिया गया।

इन छह अधिकारों की रक्षा केवल राज्य के खिलाफ मामले में है न कि निजी मामले में। अर्थात्‌ ये अधिकार केवल नागरिकों और कंपनी के शेयर धारकों के लिए हैं, नकि विदेशी या कानूनी लोगों जैसे कंपनियों या परिषदों के लिए।

राज्य इन छह अधिकारों पर अनुच्छेद 19 में उल्लिखित आधारों पर ‘उचित’ प्रतिबंध लगा सकता है।

वाक्‌ एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

यह प्रत्येक नागरिक को अभिव्यक्ति दर्शाने, मत देने, विश्वास एवं अभियोग लगाने की मौखिक, लिखित, छिपे हुए मामलों पर स्वतंत्रता देता है। उच्चतम न्यायालय ने वाक्‌ एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में निम्नलिखित को सम्मिलित किया:

  • अपने या किसी अन्य के विचारों को प्रसारित करने का अधिकार।
  • प्रेस की स्वतंत्रता।
  • व्यावसायिक विज्ञापन की स्वतंत्रता।
  • फोन टैपिंग के विरुद्ध अधिकार।
  • प्रसारित करने का अधिकार अर्थात्‌ सरकार का इलैक्ट्रॉनिक मीडिया पर एकाधिकार नहीं है।
  • किसी राजनीतिक दल या संगठन द्वारा आयोजित बंद के खिलाफ अधिकार।
  • सरकारी गतिविधियों की जानकारी का अधिकार।
  • शांति का अधिकार।
  • किसी अखबार पर पूर्व प्रतिबंध के विरुद्ध अधिकार।
  • प्रदर्शन एवं विरोध का अधिकार, लेकिन हड़ताल का अधिकार नहीं।

राज्य वाक्‌ एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबंध लगा सकता है। यह प्रतिबंध लगाने के आधार इस प्रकार हैं

  • भारत की एकता एवं संप्रभुता,
  • राज्य की सुरक्षा,
  • विदेशी राज्यों से मित्रवत्‌ संबंध,
  • सार्वजनिक आदेश,
  • नैतिकता की स्थापना,
  • न्यायालय की अवमानना किसी अपराध में संलिप्तता आदि।

शांतिपूर्वक सम्मेलन की स्वतंत्रता

किसी भी नागरिक को बिना हथियार के शांतिपूर्वक संगठित होने का अधिकार है । इसमें शामिल हैं सार्वजनिक बैठकों में भाग लेने का अधिकार एवं प्रदर्शन । इस स्वतंत्रता का उपयोग केवल सार्वजनिक भूमि पर बिना हथियार के किया जा सकता है। यह व्यवस्था हिंसा, अव्यवस्था, गलत संगठन एवं सार्वजनिक शांति भंग के लिए नहीं है। इस अधिकार में हड़ताल का अधिकार शामिल नहीं है।

राज्य संगठित होने के अधिकार पर दो आधारों पर प्रतिबंध लगा सकता है

  1. भारत की एकता अखंडता एवं सार्वजनिक आदेश, सहित संबंधित क्षेत्र में यातायात नियंत्रण।
  2. आपराधिक व्यवस्था की धारा 144(1973) के अंतर्गत एक न्यायधीश किसी संगठित बैठक को किसी व्यवधान के खतरे के तहत रोक सकता है।

इसे रोकने का आधार मानव जीवन के लिए खतरा, स्वास्थ्य एवं सुरक्षा, सार्वजनिक जीवन में व्यवधान या दंगा भड़काने का खतरा भी है।

भारतीय दंड संहिता की धारा 141 के तहत पांच या उससे अधिक लोगों का संगठन गैर-कानूनी हो सकता है यदि-

  • किसी कानूनी प्रक्रिया को अवरोध हो,
  • कुछ लोगों की संपत्ति पर बलपूर्वक कब्जा हो,
  • किसी आपराधिक कार्य की चर्चा हो,
  • किसी व्यक्ति पर गैर-कानूनी काम के लिए दबाव, और;
  • सरकार या उसके कर्मचारियों को उनकी विधायी शक्तियों के प्रयोग हेतु धमकाना।

संगम या संघ बनाने का अधिकार

सभी नागरिकों को सभा, संघ अथवा सहकारी समितियां गठित करने का अधिकार होगा। इसमें शामिल हैं-राजनीतिक दल बनाने का अधिकार, कंपनी, साझा फर्म, समितियां, क्लब, संगठन, व्यापार संगठन या लोगों की अन्य इकाई बनाने का अधिकार। यह न केवल संगम या संघ बनाने का अधिकार प्रदान करता है, वरन्‌ उन्हें नियमित रूप से संचालित करने का अधिकार भी प्रदान करता है। इसके अतिरिक्त यह संगम या संघ बनाने या उसमें शामिल होने के नकारात्मक अधिकार को भी शामिल करता है।

इस अधिकार पर भी राज्य द्वारा युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाया जा सकता है। इसके आधार हैं-

  • भारत की एकता एवं संप्रभुता,
  • सार्वजनिक आदेश एवं
  • नैतिकता।

इन प्रतिबंधों का आधार है कि नागरिकों को कानूनी प्रक्रियाओं के तहत कानून सम्मत उद्देश्यों के लिए संगम या संघ बनाने का अधिकार है तथापि किसी संगम की स्वीकारोक्ति मूल अधिकार नहीं है।

उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी कि श्रम संगठनों को मालभाव करने, हड़ताल करने एवं तालाबंदी करने का कोई अधिकार नहीं है। हड़ताल के अधिकार को उपयुक्त औद्योगिक कानून के तहत नियंत्रित किया जा सकता है।

अबाध संचरण की स्वतंत्रता

यह स्वतंत्रता प्रत्येक नागरिक को देश के किसी भी हिस्से में संचरण का अधिकार प्रदान करती है। वह स्वतंत्रतापूर्वक एक राज्य से दूसर राज्य में या एक राज्य में एक से दूसरे स्थान पर संचरण कर सकता है। यह अधिकार इस बात को बल देता है कि भारत सभी नागरिकों के लिए एक है। इसका उद्देश्य राष्ट्रीय सोच को बढ़ावा देना है न कि संकीर्णता को।

इस स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबंध लगाने के दो कारण हैं-

  • आम लोगों का हित और
  • किसी अनुसूचित जनजाति की सुरक्षा या हित।

जनजातीय क्षेत्रों में बाहर के लोगों के प्रवेश को उनकी विशेष संस्कृति, भाषा, रिवाज और जनजातीय प्रावधानों के तहत प्रतिबंधित किया जा सकता है, ताकि उनका शोषण न हो सके।

उच्चतम न्यायालय ने इसमें व्यवस्था दी कि किसी वेश्या के संचरण के अधिकार को सार्वजनिक नैतिकता एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य के आधार पर प्रतिबंधित किया जा सकता है। बम्बई उच्च न्यायालय ने एड्स पीड़ित व्यक्ति के संचरण पर प्रतिबंध को वैध बताया।

संचरण की स्वतंत्रता के दो भाग हैं-

  • आंतरिक (देश में निर्बाध संचरण) और बाह्य (देश के बाहर घूमने का अधिकार) तथा
  • देश में वापस आने का अधिकार।

अनुच्छेद 19 मात्र पहले भाग की रक्षा करता है। दूसरे, भाग को अनुच्छेद 21 (प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार) व्याख्यायित करता है।

निवास का अधिकार

हर नागरिक को देश के किसी भी हिस्से में बसने का अधिकार है। इस अधिकार के दो भाग हैं-

  • देश के किसी भी हिस्से में रहने का अधिकार-इसका तात्पर्य है कि कहीं भी अस्थायी रूप से रहना एवं
  • देश के किसी भी हिस्से में व्यवस्थित होने का अधिकार-इसका तात्पर्य है-वहां घर बनाना एवं स्थायी रूप से बसना।

यह अधिकार देश के अंदर कहीं जाने के आंतरिक अवरोधों का समाप्त करता है। यह राष्ट्रवाद को प्रोत्साहित करता है और संकीर्ण मानसिकता को महत्व प्रदान नहीं करता।

राज्य इस अधिकार पर उचित प्रतिबंध दो आधारों पर लगा सकता है-

  • विशेष रूप से आम लोगों के हित में और
  • अनुसूचित जनजातियों के हित में।

जनजातीय क्षेत्रों में उनकी संस्कृति भाषा एवं रिवाज के आधार पर बाहर के लोगों का, प्रवेश प्रतिबंधित किया जा सकता है। देश के कई भागों में जनजातियों को अपनी संस्कृति के संरक्षण एवं संवर्धन हेतु अपने रिवाज एवं नियम कानून के बनाने का अधिकार है।

उच्चतम न्यायालय ने कुछ क्षेत्रों में लोगों के घूमने पर प्रतिबंध लगाया है, जैसे वेश्या या पेशेवर अपराधी

उपरोक्त प्रावधान में से यह स्पष्ट है कि निवास का अधिकार एवं घूमने के अधिकारों का कुछ विस्तार भी किया जा सकता है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं।

व्यवसाय आदि की स्वतंत्रता

सभी नागरिकों को किसी भी व्यवसाय को करने, पेशा अपनाने एवं व्यापार शुरू करने का अधिकार दिया गया है। यह अधिकार बहुत विस्तृत है क्योंकि यह जीवन निर्वहन हेतु आय से संबंधित है।

राज्य सार्वजनिक हित में इसके प्रयोग पर युक्तियुक्त प्रतिबंध लगा सकता है। इसके अतिरिक्त राज्य को यह अधिकार है कि वहः

  • किसी पेशे या व्यवसाय के लिए पेशेगत या तकनीकी योग्यता को जरूरी ठहरा सकता है।
  • किसी व्यापार, व्यवसाय, उद्योग या सेवा को पूर्ण या आंशिक रूप से स्वयं जारी रख सकता है।

इस प्रकार, जब राज्य किसी व्यापार, व्यवसाय उद्योग पर अपना एकाधिकार जताता है तो प्रतियोगिता में आने वाले व्यक्तियों या राज्यों के लिए अपने एकाधिकार को न्यायोचित ठहराने की कोई आवश्यकता नहीं।

इस अधिकार में कोई अनैतिक कृत्य शामिल नहीं हैं, जैसे-महिलाओं या बच्चों का दुरुपयोग या खतरनाक (हानिकारक औषधियों या विस्फोटक आदि) व्यवसाय। राज्य इन पर पूर्णत: प्रतिबंध लगा सकता है या इनके संचालन के लिए लाइसेंस की अनिवार्यता कर सकता है।

अपराध के लिए दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण  – अनुच्छेद-20

अनुच्छेद-20 किसी भी अभियुक्त या दोषी करार व्यक्ति, चाहे वह नागरिक हो या विदेशी या कंपनी व परिषद का कानूनी व्यक्ति हो, उसके विरुद्ध मनमाने और अतिरिक्त दण्ड से संरक्षण प्रदान करता है है। इस संबंध में तीन व्यवस्थाएं हैं:

1. कोई पूर्व पद प्रभाव का कानून नहीं: कोई व्यक्ति

  • किसी व्यक्ति अपराध के लिए तब तक सिद्ध दोष नहीं ठहराया जाएगा, जब तक कि उसने ऐसा कोई कार्य करने के समय, जो अपराध के रूप में आरोपित है, किसी प्रवृत्त विधि का अतिक्रमण नहीं किया है, या
  • उससे अधिक शास्ति का भागी नहीं होगा, जो उस अपराध के किए जाने के समय प्रवृत्त विधि के अधीन अधिरोपित की जा सकती थी।

एक पूर्व पद प्रभाव कानून वह है, जो पूर्व व्यापी प्रभाव से दण्ड अध्यारोपित करता है अर्थात्‌ किए गए कृत्यों पर या जो ऐसे कृत्यों हेतु दण्ड को बढ़ाता है। अनुच्छेद 20 के पहले प्रावधान के अंतर्गत इस तरह के क्रियान्वयन पर रोक है। हालांकि इस तरह की सीमाएं केवल आपराधिक कानूनों में ही हैं, न कि सामान्य सिविल अधिकार या कर कानूनों में।

दूसरे शब्दों में, जन-उत्तरदायित्व या एक कर को पूर्व व्यापी रूप में लगाया जा सकता है, इसके अतिरिक्त इस तरह की व्यवस्था अपराध दोष या सजा सुनाए जाने के मौके पर आपराधिक कानूनों पर प्रभावी रहती है। अंततः सुरक्षा व्यवस्था के तहत बचाव के मामले में एक व्यक्ति की सुरक्षा की मांग के आधार पर नहीं की जा सकती।

2. दोहरी क्षति नहीं

किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक बार से अधिक अभियोजित और दंडित नहीं किया जाएगा।

दोहरी क्षति के विरुद्ध सुरक्षा का मामला सिर्फ एक कानूनी न्यायालय या न्यायिक अधिकरण में ही उठाया जा सकता है। दूसरे शब्दों में, यह विभागीय या प्रशासनिक सुनवाई में लागू नहीं हो सकता। चूंकि ये न्यायिक प्रकृति के नहीं हैं।

3. स्व-अभिशंसन नहीं

किसी अपराध के लिए अभियुक्त किसी व्यक्ति को स्वयं अपने विरुद्ध साक्षी होने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा।

स्व-अभिशंसन के संबंध में मौखिक और प्रलेखीय साक्ष्य दोनों में संरक्षण प्राप्त है। हालांकि यह विस्तारित नहीं किया जा सकता

  • भौतिक विषयों के आवश्यक उत्पादनों पर
  • अंगूठे के निशान, हस्ताक्षर एवं रक्त जांच की अनिवार्यता पर
  • किसी इकाई की प्रदर्शनी की अनिवार्यता।

इसके अलावा इसका विस्तार केवल उन शिकायतों की सुनवाइयों पर ही हो सकता है, जो आपराधिक प्रकृति की न हों।

प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता – अनुच्छेद 21

अनुच्छेद 21 में घोषणा की गई है कि किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा अन्यथा नहीं।

प्रसिद्ध गोपालन मायले (1950) में उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 21 की सूक्ष्म व्याख्या की। इसमें व्यवस्था की गई कि अनुच्छेद 21 के तहत सिर्फ मनमानी कार्यकारी प्रक्रिया के विरुद्ध सुरक्षा उपलब्ध है न कि विधानमंडलीय प्रक्रिया के विरुद्ध। इसका मतलब राज्य प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार को कानूनी आधार पर रोक सकता है। इस तरह कानून की वैधता एवं उसकी व्यवस्था पर अकारण, अन्यायपूर्ण आधार पर प्रश्न नहीं उठाया जा सकता।

उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मतलब सिर्फ एक व्यक्ति की शारीरिक एव निजी स्वतंत्रता से है।

लेकिन मेनका मामले (1978)” में उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 21 के तहत गोपालन मामले में अपने फैसले को पलट दिया। अत: न्यायालय ने व्यवस्था दी कि प्राण और दैहिक स्वतंत्रता को उचित एवं न्यायपूर्ण मामले के आधार पर रोका जा सकता है। इसके प्रभाव में अनुच्छेद 21 के तहत सुरक्षा केवल मनमानी कार्यकारी क्रिया पर ही उपलब्ध नहीं बल्कि विधानमंडलीय क्रिया के विरुद्ध भी उपलब्ध है।

न्यायालय ने ‘प्राण की स्वतंत्रता’ की व्याख्या करते हुए कहा इसके विस्तार का आशय है कि एक व्यक्ति की प्राण स्वतंत्रता में अधिकारों के कई प्रकार हैं-इसमें प्राण के अधिकार’ को शारीरिक बंधनों में नहीं बांधा गया बल्कि इसमें मानवीय सम्मान और इससे जुड़े अन्य पहलुओं को भी रखा गया।

उच्चतम न्यायालय ने मेनका मामले में अपने फैसले को दोबारा स्थापित किया। इसमें अनुच्छेद 21 के भाग के रूप में निम्नलिखित अधिकारों की घोषणा की।

  1. मानवीय प्रतिष्ठा के साथ जीने का अधिकार।
  2. स्वच्छ पर्यावरण प्रदूषण रहित जल एवं वायु में जीने का अधिकार एवं हानिकारक उद्योगों के विरुद्ध सुरक्षा।
  3. जीवन रक्षा का अधिकार।
  4. निजता का अधिकार।
  5. आश्रय का अधिकार।
  6. स्वास्थ्य का अधिकार।
  7. 4 वर्ष की उम्र तक निःशुल्क शिक्षा का अधिकार।
  8. नि:शुल्क कानूनी सहायता का अधिकार।
  9. अकेले कारावास में बंद होने के विरुद्ध अधिकार।
  10. त्वरित सुनवाई का अधिकार।
  11. हथकड़ी लगाने के विरुद्ध अधिकार।
  12. अमानवीय व्यवहार के विरुद्ध अधिकार।
  13. देर से फांसी के विरुद्ध अधिकार।
  14. विदेश यात्रा करने का अधिकार।
  15. बंधुआ मजदूरी करने के विरुद्ध अधिकार।
  16. हिरासत में शोषण के विरुद्ध अधिकार।
  17. आपातकालीन चिकित्सा सुविधा का अधिकार।
  18. सरकारी अस्पतालों में समय पर उचित इलाज का अधिकार।
  19. राज्य के बाहर न जाने का अधिकार।
  20. निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार।
  21. कैदी के लिए जीवन की आवश्यकताओं का अधिकार।
  22. महिलाओं के साथ आदर और सम्मानपूर्वक व्यवहार करने का अधिकार।
  23. सार्वजनिक फांसी के विरुद्ध अधिकार।
  24. पहाड़ी क्षेत्रों में मार्ग का अधिकार
  25. सूचना का अधिकार।
  26. प्रतिष्ठा का अधिकार।
  27. दोषसिद्धि वाले न्यायालय आदेश से अपील का अधिकार
  28. पारिवारिक पेंशन का अधिकार
  29. सामाजिक एवं आर्थिक न्याय एवं सशक्तीकरण का अधिकार
  30. बार केटर्स के विरुद्ध अधिकार
  31. जीवन बीमा पॉलिसी के विनियोग का अधिकार
  32. शयन का अधिकार
  33. शोर प्रदूषण से मुक्ति का अधिकार
  34. धरणीय विकास का अधिकार
  35. अवसर का अधिकार

शिक्षा का अधिकार – अनुच्छेद 21 क

अनुच्छेद 21 क में घोषणा की गई है कि राज्य 6 से 14 वर्ष तक की उम्र के बच्चों को नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराएगा। इसका निर्धारण राज्य करेगा। इस प्रकार यह व्यवस्था केवल आवश्यक शिक्षा के एक मूल अधिकार के अंतर्गत है न कि उच्च या व्यावसायिक शिक्षा के संदर्भ में।

यह व्यवस्था 86वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 2002 के अंतर्गत की गयी है। यह संशोधन देश में सर्वशिक्षा’ के लक्ष्य में एक मील का पत्थर साबित हुआ है। सरकार ने यह कदम नागरिकों के अधिकार के मामले में द्वितीय क्रांति की तरह उठाया है।

इस संशोधन के पहले भी संविधान में भाग 4 के अनुच्छेद 45 में बच्चों के लिए नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था थी तथापि निदेशक सिद्धांत होने के कारण यह न्यायालय द्वारा जरूरी नहीं ठहराया जा सकता था। अब उसमें कानूनी प्रावधान की व्यवस्था है।

यह संशोधन अनुच्छेद 45 के निदेशक सिद्धांत को बदलता है। अब इसे पढ़ा जाता है-“राज्य सभी बच्चों को चौदह वर्ष की आयु पूरी करने तक नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने के लिए उपबंध करने का प्रयास करेगा।” इसमें एक मूल कर्तव्य अनुच्छेद 51 क के तहत जोड़ा गया, “प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह 6 से 14 वर्ष तक के अपने बच्चे को शिक्षा प्रदान कराएगा।”

1993 में उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 21 के अंतर्गत स्वय जीवन के अधिकार में प्राथमिक शिक्षा को मूल अधिकार के रूप में जोड़ा। इसमें व्यवस्था की गई कि भारत के किसी भी बच्चे को 14 वर्ष की आयु तक नि:शुल्क शिक्षा प्रदान की जाए। इसके उपरांत उसकी शिक्षा का अधिकार आर्थिक क्षमता की सीमा एवं राज्य के विकास का विषय है। इस फैसले में न्यायालय ने अपने पूर्व फैसले (1992) को बदला, जिसमें घोषणा की गई थी कि शिक्षा का अधिकार किसी भी स्तर पर है, जिसमें व्यावसायिक शिक्षा, जैसे चिकित्सा एवं इंजीनियरिंग भी शामिल हैं।

यह विधान इस दृष्टि से अधिनियमित किया गया है कि समानता, सामाजिक न्याय तथा लोकतंत्र के मूल्यों के साथ ही न्यायपूर्ण एवं मानवीय समाज निर्माण का लक्ष्य सभी को समावेशी प्रारम्भिक शिक्षा प्रदान कर प्राप्त किया जा सके।

निरोध एवं गिरफ्तारी से संरक्षण – अनुच्छेद 22

अनुच्छेद 22 किसी व्यक्ति को गिरफ्तारी एवं निरोध से संरक्षण प्रदान करता है। हिरासत दो तरह की होती है

  1. दंड विषयक (कठोर) और
  2. निवारक।

दंड विषयक हिरासत, एक व्यक्ति को दंड देती है, जिसने अपराध स्वीकार कर लिया है और अदालत में उसे दोषी ठहराया जा चुका है।

निवारक हिरासत वह है, जिसमें बिना सुनवाई के अदालत में दोषी ठहराया जाए। इसका उद्देश्य किसी व्यक्ति को पिछले अपराध पर दंडित न कर भविष्य में ऐसे अपराध न करने की चेतावनी देने जैसा है। इस तरह निवारक हिरासत केवल शक के आधार पर एहतियाती होती है।

अनुच्छेद 22 के दो भाग हैं-

1. पहला भाग साधारण कानूनी मामले से संबंधित है, जबकि

अनुच्छेद 22 का पहला भाग उस व्यक्ति को जिसे साधारण कानून के तहत हिरासत में लिया गया निम्नलिखित अधिकार उपलब्ध कराता है:

  1. गिरफ्तार करने के आधार पर सूचना देने का अधिकार।
  2. विधि व्यवसायी से परामर्श और प्रतिरक्षा कराने का अधिकार।
  3. दंडाधिकारी (मजिस्ट्रेट) के सम्मुख 24 घंटे में, यात्रा के समय को मिलाकर पेश होने का अधिकार।
  4. दंडाधिकारी द्वारा बिना अतिरिक्त निरोध दिए 24 घंटे में रिहा करने का अधिकार।

यह सुरक्षा कवच विदेशी व्यक्ति या निवारक हिरासत कानून के अन्तर्गत गिरफ्तार व्यक्ति के लिए उपलब्ध नहीं हैं।

उच्चतम न्यायालय ने यह व्यवस्था भी दी कि अनुच्छेद 22 का प्रथम भाग गिरफ्तारी और निरोध’ न्यायालय के आदेश के अंतर्गत गिरफ्तारी, जन-अधिकार गिरफ्तारी, आयकर न देने पर गिरफ्तारी एवं विदेशी के पकड़े जाने पर लागू नहीं होता। इसका प्रयोग केवल आपराधिक क्रियाओं या सरकारी अपराध प्रकृति एवं कुछ प्रतिकूल सार्वजनिक हितों पर हो सकता है।

2. दूसरा भाग निवारक हिरासत के मामलों से संबंधित है।

अनुच्छेद 22 का दूसरा भाग उन व्यक्तियों को सुरक्षा प्रदान करता है, जिन्हें दंड विषयक कानून के अंतर्गत गिरफ्तार किया गया है। यह सुरक्षा नागरिक एवं विदेशी दोनों के उपलब्ध है। इसमें शामिल हैं;

  1. व्यक्ति की हिरासत तीन माह से ज्यादा नहीं बढ़ाई जा सकती, जब तक कि सलाहकार बोर्ड इस बारे में उचित कारण न बताए। बोर्ड में उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश होंगे।
  2. निरोध का आधार संबंधित व्यक्ति को बताया जाना चाहिए। हालांकि सार्वजनिक हितों के विरुद्ध इसे बताना आवश्यक नहीं है।
  3. निरोध वाले व्यक्ति को यह अधिकार है कि वह निरोध के आदेश के विरुद्ध अपना प्रतिवेदन करे।

अनुच्छेद 22, संसद को भी यह बताने के लिए अधिकृत करता है कि

  • किन परिस्थितियों के अधीन और किस वर्ग या वर्गों के मामलों में किसी व्यक्ति को निवारक निरोध का उपबंध करने वाली किसी विधि के अधीन तीन मास से अधिक अवधि के लिए सलाहकार बोर्ड की राय प्राप्त किए बिना विरुद्ध नहीं किया जाएगा।
  • किसी वर्ग या वर्गों के मामलों में किती अधिकतम अवधि के लिए किसी व्यक्ति को निवारक निरोध का उपबंध करने वाली किसी विधि के अधीन विरुद्ध किया जा सकेगा।
  • जांच में सलाहकार बोर्ड द्वारा अनुसरण की जाने वाली प्रक्रिया।

44 संविधान अधिनियम, 1978 द्वारा निरोध की अवधि को बिना सलाहकार बोर्ड के राय के तीन से दो माह कर दिया गया है। हालांकि यह व्यवस्था अब भी प्रयोग में नहीं आई, जबकि निरोध की मूल अवधि तीन माह की अब भी जारी है। संविधान ने हिरासत मामले में वैधानिक शक्तियों को संसद एवं विधानमंडल के बीच विभक्त किया है।

संसद के पास निवारक निरोध, रक्षा, विदेश मामलों एवं भारत की सुरक्षा के संबंध में विशेष अधिकार हैं। संसद एवं विधानमंडल दोनों को आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति सुनिश्चित करने, सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने एवं राज्य की सुरक्षा मामले आदि पर हिरासत संबंधी कानून बनाने का अधिकार है।

निवारक निरोध कानून, जिन्हें संसद द्वारा बनाया गया है:

  1. निवारक निरोध अधिनियम 1950 जो 1969 में समाप्त हो गया।
  2. आतरिक सुरक्षा अधिनियम (MISA) 1971, जिस 1978 में निरसित कर दिया।
  3. विदेशी मुद्रा का संरक्षण एवं व्यसन निवारण अधिनियम (COFEPOSA) 1974
  4. राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (NASA), 1980
  5. चोरबाजारी निवारण और आवश्यक वस्तु प्रदाय अधिनियम (PBMSECA), 1980
  6. आतंकवादी और विध्वंसक क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम (TADA), 1985 यह 1995 में समाप्त हो गया।
  7. स्वापक औषधि और मनरू प्रभावी पदार्थ व्यापार निवारण (PITNDPSA) अधिनियम, 1988
  8. आतंकवाद निवारण अधिनियम (POTA) 2002, 2004 में इसे निरस्त कर दिया गया।
  9. गैर-कानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम (UAPA), 1967, जो कि 2004, 2008, 2012 तथा 2019 में संशोधित हुआ।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि, विश्व में कोई भी ऐसा लोकतांत्रिक देश नहीं है, जहां भारत के समान संविधान के अंतरिम भाग में आंतरिक निरोध एवं निवारण संबंधी कानून की पूरी व्यवस्थाएं हो। अमेरिका में तो हैं ही नहीं। ब्रिटेन में इन्हें तब दोबारा रखा गया, जब प्रथम एवं द्वितीय विश्व युद्ध का समय था। भारत में भी ब्रिटिश शासनकाल के समय यह व्यवस्था थी।

उदाहरण के लिए बंगाल राज्य कैदी विधेयक, 1818 एवं भारत की सुरक्षा अधिनियम, 1939 में निवारक निरोध की व्यवस्था थी।

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