न्यायिक समीक्षा क्या है? इसके प्रकार, महत्व संबंधित मुद्दे व संवैधानिक प्रावधान

न्यायिक समीक्षा (judicial review) विधायी अधिनियमों तथा कार्यपालिका के आदेशों की संवैधानिकता की जाँच करने हेतु न्यायपालिका की शक्ति है जो केंद्र एवं राज्य सरकारों पर लागू होती है। न्यायिक सिद्धांत न केवल इस आधार पर मामले की जाँच करता है कि कोई कानून किसी व्यक्ति को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित तो नहीं करता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि कानून उचित और न्यायपूर्ण हो।

न्यायिक समीक्षा के दो महत्त्वपूर्ण कार्य हैं, जैसे-

  • सरकारी कार्रवाई को वैध बनाना और
  • सरकार द्वारा किये गए किसी भी अनुचित कृत्य के खिलाफ संविधान का संरक्षण करना।

न्यायिक समीक्षा के प्रकार (Types of judicial review in Hindi)

  • विधायी कार्यों की समीक्षा:- इस समीक्षा का तात्पर्य यह सुनिश्चित करना है कि विधायिका द्वारा पारित कानून के मामले में संविधान के प्रावधानों का अनुपालन किया गया है।
  • प्रशासनिक कार्रवाई की समीक्षा:– यह प्रशासनिक एजेंसियों पर उनकी शक्तियों निर्वहन करते समय उनपर संवैधानिक अनुशासन लागूकरने के लिये एक उपकरण है।
  • न्यायिक निर्णयों की समीक्षा:-इस समीक्षा का उपयोग न्यायपालिका द्वारा पिछले निर्णयों में किसी भी प्रकार का बदलाव करने या उसे सही करने के लिये किया जाता है।

न्यायिक समीक्षा का महत्त्व (Importance of judicial review)

  • यह संविधान की सर्वोच्चता बनाए रखने के लिये आवश्यक है।
  • विधायिका और कार्यपालिका द्वारा सत्ता के संभावित दुरुपयोग की जाँच करने के लिये आवश्यक है।
  • यह लोगों के अधिकारों की रक्षा करता है।
  • संघीय संतुलन बनाए रखता है।
  • यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सुरक्षित करने के लिये आवश्यक है।
  • यह अधिकारियों के अत्याचार को रोकता है।

न्यायिक समीक्षा से संबंधित मुद्दे

यह सरकार के कामकाज को सीमित करती है। जब यह किसी मौजूदा कानून को अधिभावी/रद्द (Overrides) करता है तो यह संविधान द्वारा स्थापित शक्तियों की सीमा का उल्लंघन है। न्यायाधीशों द्वारा किसी मामले में लिया गया निर्णय अन्य मामलों के लिये मानक बन जाता है, हालाँकि अन्य मामलों में परिस्थितियाँ अलग हो सकती हैं। न्यायिक समीक्षा व्यापक पैमाने पर आम जनता को नुकसान पहुँचा सकती है, क्योंकि किसी कानून के विरुद्ध दिया गया निर्णय व्यक्तिगत उद्देश्यों से प्रभावित हो सकता है।

न्यायालय के बार-बार हस्तक्षेप करने से सरकार की ईमानदारी, गुणवत्ता और दक्षता पर लोगों का विश्वास कम हो सकता है।

न्यायिक समीक्षा संबंधी संवैधानिक प्रावधान

किसी भी कानून को अमान्य घोषित करने के लिये न्यायालयों को सशक्त बनाने संबंधी संविधान में कोई भी प्रत्यक्ष अथवा विशिष्ट प्रावधान नहीं है, लेकिन संविधान के तहत सरकार के प्रत्येक अंग पर कुछ निश्चित सीमाएँ लागू की गई हैं, जिसके उल्लंघन से कानून शून्य हो जाता है। न्यायालय को यह तय करने का कार्य सौंपा गया है कि संविधान के तहत निर्धारित सीमा का उल्लंघन किया गया है अथवा नहीं है।

न्यायिक समीक्षा की प्रक्रिया का समर्थन करने संबंधी कुछ विशिष्ट प्रावधान

  • अनुच्छेद 372 (1): यह अनुच्छेद भारतीय संविधान के लागू होने से पूर्व बनाए गए किसी कानून की न्यायिक समीक्षा से संबंधित प्रावधान करता है।
  • अनुच्छेद 13: यह अनुच्छेद घोषणा करता है कि कोई भी कानून जो मौलिक अधिकारों से संबंधित किसी प्रावधान का उल्लंघन करता है, मान्य नहीं होगा।
  • अनुच्छेद 32 और अनुच्छेद 226 सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय को मौलिक अधिकारों का रक्षक एवं गारंटीकर्त्ताकी भूमिका प्रदान करते हैं।
  • अनुच्छेद 251 और अनुच्छेद 254 में कहा गया है कि संघ और राज्य कानूनों के बीच असंगतता के मामले में राज्य कानून शून्य हो जाएगा।
  • अनुच्छेद 246 (3) राज्य सूची से संबंधित मामलों पर राज्य विधायिका की अनन्य शक्तियों को सुनिश्चित करता है।
  • अनुच्छेद 245 संसद एवं राज्य विधायिकाओं द्वारा निर्मित कानूनों की क्षेत्रीय सीमा तय करने से संबंधित है।
  • अनुच्छेद 131-136 में सर्वोच्च न्यायालय को व्यक्तियों तथा राज्यों के बीच, राज्यों तथा संघ के बीच विवादों में निर्णय लेने की शक्ति प्रदान की गई है।
  • अनुच्छेद 137 सर्वोच्च न्यायालय को उसके द्वारा सुनाए गए किसी भी निर्णय या आदेश की समीक्षा करने हेतु एक विशेष शक्ति प्रदान करता है।

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