ग्राम न्यायालय अधिनियम

देश के ग्रामीण क्षेत्रों में न्याय तन्त्र को गति देने और उसे सुलभ बनाने के लिए ग्राम न्यायालय अधिनियम, 2008 (Gram Nyayalayas Act, 2008) के अंतर्गत इन न्यायालयों का गठन करने का प्रावधान है। इस व्यवस्था के अंतर्गत राज्यों को पंचायत स्तर पर दीवानी या फौजदारी (Civil or Criminal) के सामान्य मामलों (अधिकतम सज़ा 2 वर्ष) में सुनवाई कर नागरिकों को त्वरित न्याय उपलब्ध कराने के निर्देश दिये गए हैं।

पृष्ठभूमि

  • भारतीय संविधान के भाग-4 में राज्य के नीति निदेशक तत्वों के अंतर्गत अनुच्छेद 39 (a) में राज्यों को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया गया है कि –
    • राज्य का विधि तंत्र इस तरह से काम करे जिससे सभी नागरिकों के लिये न्याय प्राप्त करने का समान अवसर उपलब्ध हो सके।
    • इसके साथ ही राज्यों को उपयुक्त विधानों, योजनाओं या किसी अन्य माध्यम से निःशुल्क विधिक सहायता प्रदान करने हेतु व्यवस्था करनी चाहिये, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि कोई भी नागरिक आर्थिक या किसी अन्य कारण से न्याय प्राप्त करने से वंचित न रहे।
  • वर्ष 1986 में 114वें विधि आयोग (114th Law Commission) ने अपनी रिपोर्ट में ग्राम न्यायलय की अवधारण प्रस्तुत करते हुए ग्राम पंचायत स्तर पर ‘ग्राम न्यायालयों’ की स्थापना की सिफारिश की।
  • समिति की सिफारिशों को ध्यान में रखते हुए राज्यसभा में 15 मई, 2007 को ‘ग्राम न्यायालय अधिनियम’ का मसौदा प्रस्तुत किया गया।
  • यह कानून 2 अक्तूबर, 2009 को लागू किया गया।
  • वर्तमान में देश के कुल 9 राज्यों में मात्र 208 ग्राम न्यायालय ही कार्यरत हैं।

ग्राम न्यायालय की स्थापना

  • ग्राम न्यायालय अधिनियम-2008 के अनुच्छेद 3(1) के तहत राज्य सरकारों को ज़िले में मध्यवर्ती स्तर पर प्रत्येक पंचायत या निकटवर्ती पंचायतों के समूह के लिये एक या अधिक (अधिनियम की शर्तों के अनुसार) ‘ग्राम न्यायालय’ स्थापित करने का अधिकार दिया गया है।
  • अधिनियम के अनुसार, राज्य सरकारें इस संबंध में उच्च न्यायालय से परामर्श के पश्चात् अधिसूचना जारी कर ‘ग्राम न्यायालयों’ की स्थापना कर सकेंगी।

ग्राम न्यायालय का स्वरूप

  • किसी ग्राम न्यायालय का अध्यक्ष न्यायाधिकारी कहलाता है जिसके पास वही शक्ति और वही वेतनमान-लाभ आदि होते हैं जो कि एक प्रथम श्रेणी के न्यायिक दंडाधिकारी के पास होते हैं।
  • न्यायाधिकारी की नियुक्ति राज्य सरकार राज्य के उच्च न्यायालय के साथ परामर्श कर के करती है।
  • राज्य सरकार उच्च न्यायालय के साथ परामर्श करके इस न्यायालय के गठन की जो अधिसूचना निकालती है उसमें लिखा होता है कि इस न्यायालय का न्यायाधिकार किस क्षेत्र के ऊपर होगा।
  • यह न्यायालय चलंत न्यायालय बनकर अपने न्याय क्षेत्र में कहीं भी जाकर काम कर सकता है, परन्तु इसके लिए उसे पहले से जनसाधारण को सूचित करना होगा।
  • इस न्यायालय को व्यवहारिक और आपराधिक दोनों प्रकार के मामलों पर न्यायाधिकार होगा।
  • इस न्यायालय का धन विषयक न्यायाधिकार सम्बंधित उच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित किया जाता है।

‘ग्राम न्यायालय’ की शक्तियाँ और प्राधिकार

  • ‘ग्राम न्यायालयों’ को ‘ग्राम न्यायालय अधिनियम, 2008’ की अनुसूची (1) व (2) में निर्धारित दीवानी और फौजदारी (Civil and Criminal) के सामान्य मामलों में सुनवाई करने के लिये कुछ शक्तियाँ और अधिकार प्रदान किये गए हैं।
  • अधिनियम में प्रदत्त विशेष अधिकारों के तहत ग्राम न्यायालय सिविल प्रक्रिया संहिता (Code of Civil Procedure), 1908 व भारतीय साक्ष्य अधिनियम (Indian Evidence Act), 1872 का अनुसरण करने के लिये बाध्य नहीं होंगे।
  • ग्राम न्यायालय आपराधिक मामलों में न्याय की संक्षिप्त प्रक्रिया (Summary Procedure) और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों (Principles of Natural Justice) का अनुसरण करते हुए शीघ्र न्याय प्रदान करने का प्रयास करेंगे।
  • इन न्यायालयों को ऐसे कुछ साक्ष्य स्वीकार करने की शक्ति मिली हुई है जो भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत अन्यथा स्वीकार्य नहीं होते।
  • ‘ग्राम न्यायालयों’ में सिर्फ उन्ही मामलों की सुनवाई की जाएगी जिनमें अधिकतम सज़ा दो वर्ष का कारावास (ज़ुर्माने के साथ या बगैर) या इससे कम हो, अपराध क्षमायोग्य (प्रशमनीय) हो आदि।

ग्राम न्यायालय के फैसलों में अपील:

ग्राम न्यायालय द्वारा दिये गए किसी आदेश को उसके जारी होने के 30 दिनों के अंदर संबंधित ज़िला न्यायालय या सत्र न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है।

  • दीवानी मामले: ग्राम न्यायालय द्वारा दीवानी मामले में दिये गए किसी आदेश को संबंधित ज़िला न्यायालय (District Court) में चुनौती दी जा सकती है।
  • फौजदारी मामले: ग्राम न्यायालय द्वारा फौजदारी मामले में दिए गये किसी आदेश को संबंधित सत्र न्यायालय (Session Court) में चुनौती दी जा सकती है।
  • ज़िला एवं सत्र न्यायालयों को ग्राम न्यायालय के आदेश के खिलाफ प्राप्त याचिकाओं पर 6 माह के अंदर फैसला देना होगा।

ग्राम न्यायालयों की स्थापना के लाभ

ग्राम न्यायालयों की स्थापना के कुछ लाभ निम्नलिखित हैं-

  • ग्राम पंचायत स्तर पर न्यायालयों की तक पहुँच से लोगों के लिये समय और धन की बचत होगी।
  • लंबित मामलों में एक बड़ी संख्या उन मामलों की भी है जिनका आपसी सुलह या मध्यस्थता से निस्तारण किया जा सकता है, ग्राम न्यायालयों के गठन से ऐसे मामलों में भारी कमी आएगी।
  • न्याय प्रक्रिया में आसानी और इसके तीव्र निस्तारण से जनता में विधि व्यवस्था के प्रति विश्वास बढ़ेगा।

ग्राम न्यायालय की स्थापित करने में चुनातियों

केंद्र सरकार की 12वीं पंचवर्षीय योजना के तहत 2,500 ग्राम न्यायालय गठित किये जाएँ, परन्तु अभी तक इस प्रकार के 208 न्यायालय ही देश में काम कर रहे हैं। अभी तक मात्र 11 राज्यों ने ही ग्राम न्यायालयों से सम्बंधित अधिसूचना निर्गत करने के लिए कदम उठाये हैं। केवल केरल, महाराष्ट्र और राजस्थान में ही ऐसे न्यायालय कार्यशील हैं।

 ग्राम न्यायालयों की स्थापना में कुछ चुनौतियाँ निम्नलिखित हैं-

  • केंद्र सरकार की अनुरूप ग्राम न्यायालय की रूपरेखा तैयार करने के लिये गठित समिति ने अपनी रिपोर्ट में एक ग्राम न्यायालय के व्यवस्थित संचालन के लिये विभिन्न स्तरों पर 21 सदस्यों को आवश्यक बताया था।
  • जो कि एक मानव संसाधनों की बहुत बड़ी कमी है।
  • जिसमे योजना की रूपरेखा में समिति ने ऐसे न्यायालयों की स्थापना के लिये 1 करोड़ रुपए की लागत का अनुमान लगाया था
  • इसे देखते हुए ज़्यादातर राज्यों ने केंद्र सरकार की सहायता के बगैर ग्राम पंचायत स्तर पर ग्राम न्यायालयों के संचालन में असमर्थता जताई है।
  • देश के अनेक दूरस्थ क्षेत्रों के गाँवों में महत्त्वपूर्ण संसाधनों, जैसे-24 घंटे बिजली, पक्की सड़क, बेहतर इंटरनेट का न होना भी इस योजना के कार्यान्वयन में एक बड़ी बाधा रही है।

ग्राम न्यायालयों का गठन न्यायिक सुधार के लिए एक अत्यावश्यक कार्य है क्योंकि इससे जिला न्यायालयों में दायर वादों की संख्या घटेगी। अनुमान तो यह है कि इसके चलते जिला न्यायालयों में लंबित वादों के मामले 50% तक घट सकते हैं।

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