मार्क्स का वर्ग संघर्ष सिद्धांत क्या है? महत्व व आलोचना

हर युग में इन दोनों वर्गों का किसी न किसी रूप में अस्तित्व रहा है। पहला वर्ग सदा ही दूसरे वर्ग का शोषण करता है। समाज के शोषक और शोषित ये दो वर्ग सदा ही आपस में संघर्ष करते रहे हैं। इन दो वर्गों में समझौता कभी भी सम्भव नहीं है। अर्थात वर्ग संघर्ष हमेशा समाज में विद्यमान दो परस्पर विरोधी हितों के बीच चलने वाला संघर्ष है जिसमे एक वर्ग आर्थिक सत्ता प्राप्त वर्ग है जिसके पास उत्पादन के साधनों का स्वामित्व है और दूसरा जो केवल शारीरिक श्रम करता है अर्थात् आर्थिक सत्ता से विहीन अपना श्रम बेचकर जीवन निर्वाह करने वाला वर्ग है। वास्तव में वर्ग संघर्ष सिद्धांत ऐतिहासिक भौतिकवाद की ही उपस्थिति है। 

वर्ग व्यक्तियों के उस समूह को कहते हैं जो उत्पादन की किसी विशेष प्रक्रिया से सम्बन्धित हो और जिनके साधारण हित एक हों और संघर्ष का अर्थ केवल लड़ाई नहीं है, किन्तु इसका व्यापक अर्थ असन्तोष, रोष और आंशिक असहयोग है।

वर्ग संघर्ष और पूंजीवाद

मार्क्स के अनुसार समाज का विकास वर्गों के आपसी तालमेल, सहयोग तथा शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व के आधार पर नहीं होता है। बल्कि वर्गों के आपसी संघर्ष के परिणामस्वरूप होता है। समाज में तमाम परिवर्तन वर्ग संघर्ष के आधार पर ही होते हैं तथा इससे समाज का विकास होता है।

दासयुग में मालिक और दास, सामन्ती युग में सामन्त और किसान के वर्ग होते थे और आज के पूंजीवादी युग में आजीविका कमाने के साधनों के आधार पर समाज को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-

  • पूंजीपति या बुर्जुआ तथा
  • श्रमजीवी या सर्वहारा

बुर्जुआ वर्ग उस सम्पत्ति का स्वामी है जिसका उपयोग वह श्रमजीवी के श्रम से अवैध लाभ प्राप्त करने के लिए करता है। बुर्जुआ वर्ग बिना कुछ परिश्रम किए श्रमिक वर्ग का शोषण करता है। श्रमजीवी वर्ग समाज का वह वर्ग है जो अपने जीविकोपार्जन के लिए पूर्ण रूप से अपने श्रम के विक्रय पर निर्भर होता है।

वर्ग संघर्ष सिद्धांत का महत्व

मार्क्स पहला व्यक्ति था जिसने इतिहास की वर्ग हितों के आधार पर व्याख्या की है। पूंजीवाद के सम्बन्ध में मार्क्स की कई भविष्यवाणियां गलत सिद्ध हुई हैं, परन्तु पूंजीवाद के विकास की धारा लगभग वही है जैसी कि मार्क्स व एँगेल्स ने बनाई थी। मार्क्स का वर्ग संघर्ष सिद्धांत श्रमजीवी वर्ग के लिए महान् प्रेरणा का स्त्रोत है क्योंकि उसके द्वारा श्रमजीवी वर्ग की विजय अवश्यम्भावी बतायी गई।

प्रभाव की दृष्टि से यदि उस सिद्धांत का हम मूल्यांकन करें तो हमें यह ज्ञात होगा कि वर्ग संघर्ष के शस्त्र को अपनाकर विश्व मानवता के बहुत बड़े भाग ने प्रत्यक्ष रूप से पूंजीवादी बुराईयों से मुक्ति प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की है। यही नहीं, पूंजीवादी, देशों में भी श्रमिकों की दशा सुधारने और उन्हें सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने के जितने भी उपक्रम हुए हैं उनको प्रेरित करने में वर्ग संघर्ष के सिद्धांत ने अप्रत्यक्ष रूप से महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है। 

अतः वर्तमान समय में विश्व श्रमिक समाज के हाथों में यह एक बहुत ही प्रभावपूर्ण शस्त्र के रूप में है, जिससे वह पूंजीवादी शोषण से अपनी रक्षा कर पाने में ही समर्थ नहीं हो रहा है, वरन् शान्ति, स्वतन्त्रता और समानता के उन लक्ष्यों को प्राप्त करने में भी सफलता प्राप्त कर रहा है जो कि समग्र रूप से विश्व मानवता के लक्ष्य हैं।

वर्ग संघर्ष सिद्धांत की आलोचना

मार्क्स के वर्ग संघर्ष सिद्धांत की निम्नलिखित तर्कों के आधार पर आलोचना की जाती है- 

1. मानव इतिहास संघर्ष का इतिहास नहीं है

मार्क्स का सिद्धांत संघर्ष पर अत्यधिक बल देता है। मार्क्स के अनुसार, अब तक के समाज का इतिहास वर्ग संघर्षों का इतिहास है।’ आलोचकों के अनुसार मार्क्स का विचार एक पक्षीय है। मानव समाज में संघर्ष के साथ-साथ सहयोग की प्रवृत्ति प्रबल रूप से विद्यमान रही है। आपसी सहयोग की भावना ही आज तक की प्रगति और उत्थान का आधार रही है। यदि समाज के विभिन्न वर्गों-व्यापारी, किसान, श्रमिक, कारीगर, आदि में सहयोग न होता तो मानव समाज टूट जाता। 

2. वर्ग की अस्पष्ट एवं दोषपूर्ण परिभाषा

मार्क्स द्वारा वर्ग की जो परिभाषा की गयी वह दोषपूर्ण है। उसकी परिभाषा के अनुसार वर्तमान समाज में मजदूरों और पूंजीपतियों के दो स्पष्ट वर्ग निश्चित नहीं किए जा सकते। आजकल उद्योगों में काम करने वाले अनेक मजदूर कम्पनियों के शेयर खरीदकर, हिस्सेदार बन जाते हैं और अतिरिक्त मूल्य के रूप में लाभ ग्रहण करने वाले पूंजीपति बन जाते हैं। इसी प्रकार उद्योगों में दस-दस हजार रुपए का मासिक वेतन पाने वाले प्रबन्धकों को क्या कहेंगे? वह कारखाने की मशीनों के मालिक नहीं हैं, इसलिए पूंजीपति नहीं है, किन्तु यदि उन्हें मजदूर कहा जाए तो क्या मजदूर शब्द के साथ अन्याय नहीं होगा। 

3. समाज में केवल दो ही वर्ग नहीं होते

मार्क्स ने समाज में दो ही वर्ग माने हैं जबकि समाज में एक तीसरा वर्ग (मध्यम वर्ग) जिसमें वकील, डाक्टर, इन्जीनियर, उच्च लोक सेवा के सदस्य, पत्रकार होते हैं, अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं और इस वर्ग की संख्या निरन्तर बढ़ रही है। मार्क्स के समकालीन लेखकों ने इस वर्ग पर ध्यान दिया है, किन्तु उसके द्वारा इस वर्ग के अस्तित्व को स्वीकार न करना उसके सिद्धांत की एक बड़ी कमजोरी है। 

4. मार्क्स की क्रान्ति की धारणा सिद्ध हुई

वर्ग संघर्ष के कारण श्रमजीवी क्रान्ति जिसको कि मार्क्स और एँगेल्स बहुत निकट समझते थे, अभी तक भी नहीं हुई हैं क्रान्ति हुई अवश्य, किन्तु वह वहां हुई जहां कि उसके होने की सबसे कम आशा थी और एक प्रकार से मार्क्स की धारणा की क्रान्ति से भिन्न थी। 

5. मार्क्स की भविष्यवाणी का वैज्ञानिक आधार नहीं

वर्ग संघर्ष के सिद्धांत के विरुद्ध सबसे अधिक महत्वपूर्ण आलोचना यह है कि श्रमजीवी वर्ग की अन्तिम विजय और उसके अधिनायकवाद की स्थापना की भविष्यवाणी का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। यह मार्क्स की कामना और आशा की अभिव्यक्ति दिखायी पड़ती है, तथ्यों पर आधारित तर्वफ सम्मत परिणाम नहीं। यदि हम मार्क्स की इस बात को भी मान लें कि पूंजीवाद का विनाश निश्चित है तो भी उसका आवश्यक परिणाम साम्यवाद की विजय ही तो नहीं हो सकेगा। 

अतः यह कहा जा सकता है कि किसी भी समाज की वर्ग व्यवस्था इतनी जटिल होती है, विशेषकर औद्योगिक समाज की, कि उसे मार्क्स के सरलीकृत सिद्धांत से नहीं समझा जा सकता। 

वर्ग संघर्ष सिद्धांत का निष्कर्ष

पूंजीवाद के विनाश के कारणों पर प्रकाश डालते हुए मार्क्स ने कहा है फ्इस संघर्ष में ‘उसका’ विनाश और सर्वहारा वर्ग की विजय दोनों ही अवश्यम्भावी हैं। उसके वर्ग संघर्ष सिद्धांत से निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं:

  1. उत्पादन सम्बन्धों के आधार पर समाज में वर्ग विभाजन स्पष्ट होता है। 
  2. समाज का विकास वर्गों के आपसी संघर्ष के फलस्वरूप होता है, आपसी सहयोग के द्वारा नहीं।
  3. समाज में मुख्यतः दो वर्ग होते हैं जिनके हित परस्पर विरोधी होते हैं। 
  4. जब तक वर्ग में वर्ग चेतना तथा वर्ग संगठन न हो तब तक वर्ग संगठन तेज होकर क्रान्ति की दशा में नहीं बढ़ता। 
  5. वर्ग संघर्ष क्रान्ति को जन्म देते हैं जिसके फलस्वरूप एक वर्ग की सत्ता दूसरे वर्ग के हाथों में आ जाती है। 

इस प्रकार वर्ग संघर्ष तथा इतिहास की आर्थिक व्याख्या के माध्यम से मार्क्स ने श्रमिकों को न केवल विजय का विश्वास दिलाया, बल्कि जैसा कि प्रेफडरिक वैटकिन्स ने लिखा है-उन्हें यह भी विश्वास दिलाया कि यह अन्तिम संघर्ष है और इसके बाद में साम्यवादी समाज की स्थापना का सवेरा शुरू हो जाएगा।

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