विश्व संस्कृति में श्री रामकृष्ण परमहंस का योगदान

श्री रामकृष्ण परमहंस का जन्म कोलकाता के निकट कामरपुकर गाँव में सन् 1836 में हुआ था। उनके माता-पिता क्षुदिराम चट्टोपाध्याय तथा चन्द्रमणि देवी निर्धन थे, पर वे बहुत धर्मनिष्ठ व सद्गुणी थे। आरम्भ के दिनों से हो रामकृष्ण का मन औपचारिक शिक्षा एवं सांसारिक मामलों से उचाट रहता था। संतों को सेवा और उनके उपदेशों में उनका बहुत मन लगता था। वे बहुधा आध्यात्मिक ध्यान में डूबे देखे जाते थे। छः वर्ष की आयु में उन्होंने पहली बार हर्षोन्माद (Ecstasy) का अनुभव किया जब उनहोंने काले बादलों को पृष्ठभूमि के साथ सफेद बगुलों की पंक्ति का उड़ते हुए देखा। हर्षोन्माद की यह प्रवृत्ति उनकी उम्र के बने के साथ गहरी होती चली गई। सात वर्ष की आयु में अपने पिता की मष्टत्यु ने उन्हें और अधिक अन्तर्मुखी बना दिया तथा दुनिया से उनके अलगाव को बढ़ा दिया।

श्री रामकृष्ण परमहंस का जीवन परिचय

जब रामकृष्ण सोलह वर्ष के थे तो उनके भाई उन्हें अपने पुजारी के व्यवसाय में सहायता करने के लिए कोलकाता ले गए। दक्षिणेश्वर में रानी रासमणि द्वारा बनवाए गए काली के मंदिर को प्रतिष्ठापित किया गया। जब उनके भाई दिवंगत हुए तो रामकृष्ण इसके मुख्य पुजारी बन गए। रामकृष्ण ने काली माता के प्रति गहरी भक्ति विकसित की और पुजारी के कर्तव्यों के अनुष्ठानो को भूलकर उनकी मूर्ति के स्नेहमय आराधना में घंटों बिताए। उनके गहरे लगाव के परिणामस्वरूप उन्हें अपने चारों ओर के सब कुछ को अपने में लपेटे असीम अग्निशिखा के रूप में काली माँ के दर्शन हुए।

श्री रामकृष्ण को ईश्वर-आसक्ति देखकर कामरपुकुर में उनके रिश्तेदारों को चिन्ता होने लगी और उन्होंने उनका विवाह शारदामणि से कर दिया। लेकिन विवाह से अप्रभावित रामकृष्ण और अधिक गहरी ईश्वर-आसक्ति में डूब गए। भगवान के विभिन्न पहलुओं का अनुभव करने की तीव्र आन्तरिक इच्छा से प्रेरित होकर, अनेक गुरुओं की सहायता से हिन्दू धर्म ग्रन्थों में बताए विभिन्न पथों पर चलते हुए उन्होंने उनमें से प्रत्येक के माध्यम से ईश्वर को पाया। इस तरह से श्री रामकृष्ण ने हिन्दू धर्म के तीन हजार में अधिक वर्षों के सम्पूर्ण आध्यात्मिक अनुभवों को पा लिया।

श्री रामकृष्ण परमहंस की गहन आध्यात्मिक साधना (Intense Spiritual Practices )

ईश्वर के लिए अपनी कभी शांत न होने वाली प्यास के साथ श्री रामकृष्ण ने हिन्दूवाद की सीमाओं को तोड़ दिया, इस्लाम और ईसाइयत के मार्गों से गुजरे और थोड़े ही समय में उन्होंने उनमें से प्रत्येक के माध्यम से उच्चतम अनुभूति प्राप्त कर ली। उन्होंने ईसा और बुद्ध को ईश्वर का अवतार कहा और सिखों के दस गुरुओं के प्रति भी श्रद्धाभाव रखा। उन्होंने अपने बारह वर्ष लम्बो आध्यात्मिक अनुभूति (उपलब्धि) के सार-तत्व को एक सरल उक्ति में अभिव्यक्त किया है-

“यतो मत, ततो पथ जितने भी मत हैं, उतने ही पथ हैं।”

अब वे आदतन अनुभूति की उच्च अवस्था में रहते थे जिसमें वे सभी प्राणियों में ईश्वर को देखते थे। श्री रामकृष्ण का नाम एक संत के रूप में फैलने लगा वे ब्रह्म समाज के अनेक नेताओं व सदस्यों के सम्पर्क में आए और उनको बहुत प्रभावित किया। विभिन्न धर्मों के सौहार्द्र पर उनकी शिक्षा ने विभिन्न वर्गों (सम्प्रदायों) के लोगों को आकर्षित किया। अनेक गृहस्थ व युवा उनके शिष्य (अनुयायी) बन गए।

उनके आध्यात्मिक जीवन की गहनता तथा अनुयायियों के अनन्त प्रवाह (पंक्ति) के लिए अथक आध्यात्मिक सेवा प्रदान का श्री रामकृष्ण के स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता रहा। उन्हें गले का कैंसर हो गया। श्री रामकृष्ण ने दैवी माँ का नाम लेते हुए अपना भौतिक शरीर त्याग दिया।

विश्व संस्कृति में श्री रामकृष्ण परमहंस का योगदान

आध्यात्मिक आदर्श

श्री रामकृष्ण परमहंस के जीवन में आधुनिक विश्व में ईश्वर प्राप्ति के आदर्श को मजबूत किया निरीश्वरवाद, भौतिकतावाद एवं विज्ञान ने लोगों के परम्परागत धार्मिक आस्थाओं को कमजोर किया हैं। श्री रामकृष्ण ने लोकातीत वास्तविकता (Reality) के (सीधे) प्रत्यक्ष अनुभव को संभावना को स्थापित किया।

महात्मा गाँधी ने कहा था-“उनका (रामकृष्ण का) जीवन हमें ईश्वा को मुँह दर-मुँह देखने की योग्यता देता है। कोई भी यह माने बिना अपने जीवन की कहानी को नहीं पढ़ सकता कि केवल ईश्वर हो वास्तविक है और शेष सभी माया (भ्रम) मात्र हैं।”

धर्मों का सौहार्द ( सद्भाव)

रामकृष्ण धर्मों के सद्भाव के हिमायती थे। वे सारे धर्मों को एक नहीं मानते थे। वे धर्मों के बीच अन्तरों को जानते थे किन्तु उन्होंने प्रदर्शित यह किया कि इन अन्तरों के बावजूद सभी धर्म एक ही सर्वोच्च लक्ष्य की ओर ले जाते हैं इसलिए वे सभी वैध व सत्य हैं। श्री रामकृष्ण ने अपने विचार को इन शब्दों में व्यक्त किया है।

एक सरोवर के कई घाट हैं। एक घाट से हिन्दू अपने बड़ों में पानी भरते हैं और इसे ‘जल’ कहते हैं। दूसरे घाट से मुसलमान अपनी मशकों में पानी भरते हैं और इसे ‘पानी’ कहते हैं। तीसरे घाट से ईसाई भी पानी लेते हैं और इसे ‘वाटर’ कहते हैं। मान लीजिए कि कोई कहें कि यह वस्तु ‘जल’ नहीं ‘पानी’ है, या यह वस्तु ‘पानी’ नहीं ‘वाटर’ है या ‘वाटर’ नहीं ‘जल’ है तो क्या’ मूर्खता नहीं होगी। लेकिन यही वह चीज है जो मतों के बीच संघर्षों, गलतफहमियों एवं झगड़ों की जड़ है। इसी के कारण लोग एक-दूसरे की हत्या कर देते हैं और धर्म के नाम पर खून बहाते हैं। लेकिन यह अच्छी बात नहीं है। प्रत्येक ईश्वर के पास ही जा रहा है। ये उसको (ईश्वर को) अनुभव कर सकते हैं यदि वे सच्चे हैं तथा हृदय में उत्कण्ठा हो।

इस प्रकार राम कृष्ण ने बहुलवाद (pluralism) के विचार की संकल्पना की। श्री रामकृष्ण का विचार इन अर्थों में एकेश्वरवाद है क्योंकि यह संकल्पना पर नहीं अपितु धर्म के प्रत्यक्ष अनुभव पर आधारित है। चूँकि धर्मों के बीच विवाद एवं धार्मिक कट्टरवाद मानवता के लिए खतरे हैं, श्री रामकृष्ण का धर्मों का सद्भाव का सिद्धान्त आधुनिक विश्व के लिए बड़ा प्रासंगिक है।

ब्रिटिश इतिहासकार आर्नल्ड टोपनकी ने लिखा है-

महात्मा गाँधी का अहिंसा का सिद्धान्त तथा श्री रामकृष्ण का धर्मों के सद्भाव के लिए प्रमाणनः इनमें हमारे लिए ऐसी अभिरुचि (प्रवृत्ति) और भावना है जो मानव जाति को एकल परिवार के रूप में बनने को संभव बना सकती है और वह भी इस परमाणु युग में स्वयं को नष्ट कर लेने का यह एकमात्र विकल्प है।”

प्रेम का ईश्वरत्वीकरण (Divinization of love):

श्री रामकृष्ण ने प्रेम के स्तर को मनाभावों के स्तर से, ईश्वर में सभी प्राणियों की आध्यात्मिक एकता के स्तर तक उठा दिया। सर्वोच्च आत्म (Supreme Self) के सिद्धान्त तथा सभी प्राणियों में इसकी सर्वव्यापिता के एकत्व का सिद्धान्त है। व्यावहारिक जीवन में इसे शायद ही लागू किया गया हो। श्री रामकृष्ण ने सभी में ईश्वरत्व देखा, गिरी हुई स्त्रियों में भी और उनके साथ भी प्रतिष्ठा के साथ व्यवहार किया। उन्होंने ‘न्यू टेस्टामेण्ट’ की प्रसिद्ध उक्ति ‘ईश्वर ही प्रेम है’ को सजीव कर दिया। प्रेम एवं मानव सम्बन्ध का यह ईश्वरत्वीकरण श्री रामकृष्ण का मानव कल्याण को महान योगदान है।

श्री रामकृष्ण ने कोई पुस्तक नहीं लिखी, ना ही उन्होंने जनता में भाषण दिए। बल्कि उन्होंने उदाहरणों के साथ रूपकों और नीति-कथाओं का प्रयोग करते हुए सरल भाषा में बोलना पसंद किया जो उन्होंने प्रकृति तथा दैनिक जीवन को प्रयोग की साध रण वस्तुओं को देख कर उनसे ली थीं। उनके वार्तालाप रोचक तथा बंगाल के सांस्कृतिक संभ्रान्तों को आकर्षित करने वाले थे। उनके शिष्य महेन्द्रनाथ गुप्त ने इन संवादों को लिपिबद्ध किया और श्री रामकृष्ण कथामृत’ के नाम से बंगला में प्रकाशित कराया है। इसका अंग्रेजी अनुवाद ‘द गोसपल ऑफ श्री रामकृष्ण’ के नाम से उपलब्ध है।

अन्य योगदान (Other contributions)

श्री रामकृष्ण ने यह दिखाकर पुरातन व आधुनिक के बीच की खाई को पाट दिया कि प्राचीन आदर्शों व अनुभवों को जीवन की आधुनिक शैली का सेवन करते हुए भी प्राप्त किया जा सकता है।

रामकृष्ण परमहँस के महान योगदान हैं-

  • ईश्वर के प्रत्यक्ष दर्शन का अनुभव करने की संभावना की स्थापना;
  • धर्मों का सद्भाव;
  • प्राचीन धार्मिक अनुष्ठानों का आधुनिक धर्मनिरपेक्ष जीवन के साथ सौहाद्रकरण;
  • धर्मों में प्रवेश कर गई विसंगतियों का निकाल बाहर करना तथा
  • सामाजिक जीवन में नैतिकता का स्वर ठीक करना उनके विचार दुर्बोधता से मुक्त थे।

श्री रामकृष्ण के सत्यता तथा लालसा व लालच के परित्याग पर बल देने से आधुनिक समय में नैतिक जावन की वृद्धि की है। उन्होंने अनैतिक कार्यों, बाह्य-प्रदर्शन, चमत्कार के व्यापार और इसी प्रकार की बातों को धार्मिक जीवन से निकालकर उसे स्वच्छ किया।

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