वैष्णव धर्म क्या है?
वैष्णव धर्म का सर्वप्राचीन नाम भागवत धर्म था। जिसकी प्रारम्भिक जानकारी उपनिषदों में मिलती है। इसके संस्थापक भगवान कृष्ण को माना जाता था जो वृष्णि वंशीय यादव कुल के नेता थे। इसका मुख्य कारण था प्राचीन समय में भगवान कृष्ण को भगवत कहकर पूजे जाते थे इससे संबंधित संप्रदाय भागवत संप्रदाय कहलाये। छान्दोग्य उपनिषद में श्री कृष्ण का उल्लेख सर्वप्रथम मिलता है। इसमें कृष्ण को देवकी पुत्र व ऋषि “घोरअंगिरस” का शिष्य बताया गया है।
वैष्णव धर्म की उत्पत्ति
महाभारत के समय में वासुदेव कृष्ण एक मात्र देवता थे लेकिन बाद में उन्हें विष्णु से जोड़ा गया। जिससे यह धर्म भागवत धर्म से वैष्णव धर्म हो गया और इसके देव विष्णु हो गए। विष्णु की उपासना करने वाले वैष्णव कहलाये। वैष्णव धर्म को सूरि, सुहृत, भागवत, सतवत, एकांतिक, तन्मय व पंचरात्रिक धर्म भी कहा जाता है। विष्णु का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद की 5 ऋचाओं में मिलता है। ऋग्वेद में विष्णु को “ऋतस्य गर्भम” (ऋत को जन्म देने वाला) कहा गया है। इन्हे इंद्र के साथ मिलकर युद्ध का नेतृत्वकर्ता माना गया है।
वैष्णव धर्म का विकास
भागवत धर्म लगभग पांचवीं शताब्दी तक का माना जाता है। वासुदेव कृष्ण की भक्ति सर्वप्रथम मथुरा से शुरू हुई। इनकी पूजा का सर्वप्रथम उल्लेख भक्ति के रूप में पाणिनि अष्टध्यायी में मिलता है। उन्होंने वासुदेव के उपासकों को वासुदेवक कहा है। मेगस्थनीज के अनुसार मथुरा में रहने वाले सौरसेनयी (शूरसेन), हेराक्लीज (वासुदेव कृष्ण) की पूजा करते थे। यूनानी लेखक “कर्टियस” बताते हैं कि पोरस की सेना अपने समक्ष हेराक्लीज की मूर्ति रखकर युद्ध करती थी।
महावीर, बुद्ध की तरह कृष्ण को भी ऐतिहासिक व्यक्ति माना जाता था। मौर्य काल में यह धर्म उत्तर, पश्चिम और दक्षिण की ओर प्रसार हुआ। मौर्योत्तर काल में यह धर्म मध्यभारत में लोकप्रिय हो गया। पतंजलि के महाभाष्य में वासुदेव, बलराम व विश्वकसेन को वृष्णिगण तथा स्वर कलक, चैत्रक व उग्रसेन को अन्धकगण से जोड़ा है। इस धर्म का विकास में शुंग वंश तथा यवन (इंडो-ग्रीक) का योगदान रहा।
भागवत धर्म से संबंधित प्रथम प्रस्तर स्मारक, यवन राजपूत हेलियोडोरस द्वारा स्थापित विदिशा (बेसनगर) का गरुड़ स्तम्भ है। राजस्थान के चितौड़ घोसुण्डी शिलालेख (प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व) में भागवत धर्म का एक आरंभिक लेख है। जो ब्राह्मी लिपि व संस्कृत लिखी हुई है। द्वितीय शताब्दी में इंडो-ग्रीक शासक अगाथोक्लीज ने सर्वप्रथम रजत सिक्कों में “संकर्षण” (बलराम व वासुदेव का चित्र) करवाया। जिसमे क्रमशः हल व गदा धारण किये हुए हैं।
वासुदेव कृष्ण का विवरण
महाभारत काल के समय वासुदेव कृष्ण को “महायोगी” कहा गया और वैष्णव धर्म को पांचरात्र या नारायणीय कर्म कहा जाने लगा। नारायण के उपासक पांचरात्रिक या एकान्तिक कहलाये। नारायण शब्द का प्रथम उल्लेख “परम पुरुष” के रूप में शतपथ ब्राह्मण मिलता है। जैन ग्रन्थ के “उत्तराध्याय सूत्र” में वासुदेव कृष्ण को “केशव” कहा गया तथा उन्हें 22वें तीर्थंकर अरिष्टनेमि का चचेरा भाई बताया गया। बौद्ध के “घटा जातक” में कृष्ण की जीवन लीला का वर्णन मिलता है।
विष्णु पुराण, पद्म पुराण ब्रह्मवैवर्त पुराण व भागवत पुराण में वृंदावन में बिताये कृष्ण के जीवन की घटनाओं का वर्णन मिलता है। छान्दोग्य उपनिषद में श्री कृष्ण का उल्लेख सर्वप्रथम मिलता है। इसमें कृष्ण को देवकी पुत्र व ऋषि “घोरअंगिरस” का शिष्य बताया गया है।
वैष्णव धर्म की मान्यताएं
हिन्दू धर्म में “मोनोलेट्री” का स्वरुप काफी महत्वपूर्ण है, जिसमें एक परमेश्वर के साथ अन्य देवताओं का भी मान्यता को अस्वीकृत नहीं किया है। “व्यूहवाद” भागवत धर्म का महत्वपूर्ण अंग है। “व्यूह” का अर्थ है ऐसी उत्पति जो किसी से उत्पन्न करती है। व्यूह पद्धति के अनुसार वासुदेव ने अपनी प्रदृष्टि से “चतुर्व्यह को उत्पन्न किया। इसकी संख्या 24 हो जाने पर इन्हें “चतुर्विंशति मूर्ति” कहा गया। इसकी संकल्पना का सर्वप्रथम वर्णन “ब्रह्मसूत्रों” में मिलता है।
चतुर्व्युह देव | उत्पत्ति | प्रतीक | देवत्व अंश |
वासुदेव | देवकी पुत्र | – | परम तत्व |
संकर्षण | रोहिणी पुत्र | ताल ध्वज | जीव अंश तत्व |
प्रद्युम्न | रुक्मिणी पुत्र | – | मन/बुद्धि तत्व |
अनिरुद्ध | प्रद्युम्न पुत्र | मकर ध्वज | अंहकार तत्व |
चतुर्व्युह की पूजा का प्रथम उल्लेख विष्णु संहिता मिलता है। नारायणीय खंड में भी इसका विस्तृत वर्णन मिलता है। वायु पुराण के अनुसार प्रथम शताब्दी ईस्वी में चतुर्व्यह के साथ साम्ब को मिलाकर वृष्णियों द्वारा “पंचवीर पूजा” प्रचलति की गयी। इन पंच वृष्णि वीरों की पूजा प्रथम अभिलेखीय साक्ष्य मोरा अभिलेख (मथुरा-प्रथम शती ई.) है। साथ ही विष्णु धर्मोत्तर पुराण में इन पंचवीरों की प्रतिमाओं का उल्लेख है। पंच वृष्णि वीर:-
वासुदेव कृष्ण | वासुदेव व देवकी पुत्र |
संकर्षण | वासुदेव व रोहिणी पुत्र |
प्रद्युम्न | वासुदेव कृष्ण व रूक्मणी पुत्र |
साम्ब | वासुदेव कृष्ण व जाम्बवती पुत्र |
अनिरुद्ध | प्रद्युम्न के पुत्र |
भगवान विष्णु के अवतार
ऐतरेय ब्राह्मण में विष्णु का उल्लेख सर्वोच्च देवता के रूप में किया गया है। भगवान विष्णु को अपना इष्टदेव मानने वाले भक्त वैष्णव कहलाते थे। वैष्णव धर्म का प्रचलन 5वीं शती ई. के मध्य में हुआ। भागवत पुराण में विष्णु के अधिकतम अवतारों की संख्या 24 है पर मत्स्यपुराण में दस अवतारों का उल्लेख मिलता है। इन अवतारों के प्रमुख दस अवतार निम्न हैं-
- मत्स्य (मछली) :- जलीय जीव
- कूर्म (कच्छप, कछुआ) :- उभयचर
- वराह (सूअर) :- स्थलचर
- नृसिंह (अर्द्धमानव) :- पशु और मानव का जीव
- वामन (बौना) :- लघुमानव
- परशुराम (परशु वाले राम) :- शस्त्र प्रयोक्ता मानव
- रामावतार (राम) :- समुदाय में रहने वाले मानव
- कृष्ण (वासुदेव) :- पशुपालन करने वाले मानव
- बुद्ध :- कृषि कर्म को बढ़ावा देने वाला मानव
- कल्कि (कलि) :- भविष्य का मानव
विष्णु के अवतारों में पहला अवतार “मत्स्य अवतार” जिसका विवरण शतपथ ब्राह्मण में मिलता है। उसके बाद “कूर्म अवतार” जिसका विवरण भी शतपथ ब्राह्मण में है। “वराह-अवतार” सर्वाधिक लोकप्रिय था। वराह का प्रथम उल्लेख ऋग्वेद में है। नारायण, नृसिंह एवं वामन दैवीय अवतार माने जाते हैं और शेष सात मानवीय अवतार। अवतारवाद का सर्वप्रथम स्पष्ट उल्लेख भगवद्गीता में मिलता है।
वैष्णव धर्म के सिद्धांत एवं शाखाएं
प्रतिहार के शासक मिहिर भोज ने विष्णु को निर्गुण और सगुण दोनों रूपों में स्वीकार करते हुए “हषीकेश” कहा। केरल का सन्त राजा कुलशेखर विष्णु का भक्त था। वामन की उपासना प्रदेश के अलवारों में चिरकाल तक होती रही। वे वाराह की भी उपासना करते थे।
प्रमुख सम्प्रदाय | मत | आचार्य | समय |
वैष्णव सम्प्रदाय | विशिष्टाद्वैत | रामानुज | 12वीं शताब्दी |
ब्रह्म सम्प्रदाय | द्वैतवाद | माधव (आनन्दतीर्थ) | 13वीं शताब्दी |
रूद्र सम्प्रदाय | शुद्धाद्वैत | विष्णु स्वामी/बल्लभाचार्य | 13वीं शताब्दी |
सनक सम्प्रदाय | द्वैताद्वैत | निम्बार्क | 13वीं शताब्दी |