शैव धर्म (Shaivism) भारतीय प्राचीनतम धर्म था। इस धर्म की प्रागैतिहासिक युग तक मानी जाती है। पुरातात्विक साक्ष्य में हड़प्पा सभ्यता के मोहनजोदड़ो की एक मुद्रा पर अंकित योगी के चित्र से “आदि शिव” की कल्पना की जाती है। ऋग्वेद में “रुद्र” को शिव का रूप बताया गया है। क्रोधित होने पर वे मानव तथा पशु जाति का संहार करते अथवा महामारी फैला देते हैं। रुद्र को ऋग्वेद में विनाशकारी एवं मंगलकारी देव बताया गया है।
शैव धर्म की उत्पत्ति (Origin of Shaivism)
शैव धर्म की उत्पत्ति प्रागैतिहासिक काल के नवपाषाण काल में भगवान शिव का प्रारंभिक रुप “लिंग पूजा” के साक्ष्य मिलते हैं। हड़प्पा सभ्यता में पाशुपत व लिंग तथा मोहनजोदड़ो की पशुपति मुहर के आधार पर शिव उपासना प्रथा निहित थी। उत्तर वैदिक काल में रूद्र एक महान देव तथा प्रजापति व विष्णु के त्रिदेव के रूप स्थापित हुए। शतरुद्रिय ऋचा जो रूद्र-शिव को समस्त लोकों के स्वामी कहा गया।
कौषीतिकी व शतपथ ब्राह्मण में शिव के 8 रूपों का उल्लेख है। जिसमे चार विध्वंसक और चार मंगलकारी स्वरूप में हैं। महाकाव्य काल तक आते-आते शैव धर्म को लोकधार मिल गया। रामायण में शिव को नीलकण्ठ, त्रयम्बक, महादेव, शम्भु, भूतनाथ, आशुतोष आदि का रूप बताया गया। महाभारत के द्रोणपर्व में कृष्ण व अर्जुन शिव से पाशुपत अस्त्र प्राप्त करने के लिए हिमालय पर्वत पर आराधना करते हैं।
लिंग पूजा का विकास
लिंग पूजन की प्रथा हड़प्पा सभ्यता में प्रचलित थी। किन्तु ऋग्वेद में शिश्न देवों की पूजा करने वाले समुदाय के प्रति तिरष्कार किया। लेकिन मौर्योत्तर काल में लिंग पूजन संप्रदाय शिव की उपासना से जुड़ गया। रामायण में रावण रूद्र की पूजा लिंग रूप में ही करते थे। लिंग पूजा का प्रथम स्पष्ट उल्लेख “मत्स्य पुराण” और महाभारत के “अनुशासन पर्व” में मिलता है। प्रारम्भ में शिव के लिंग स्वरुप “योनि” के प्रतीक में नारी प्रजनन शक्ति से जोड़ा गया।
मौर्योत्तर काल में शिव की मानवाकार लिंग रूप में प्राचीनतम मूर्ति गुड्डीमलम (रेनीगुंटा, आंध्रप्रदेश) से प्राप्त हुई जो सम्भवतः प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व की है। उज्जैन से प्राप्त एक मुद्रा पर त्रिमुखी शिव हैं जिनके हाथ में दण्ड व कमण्डल है। यहाँ से प्राप्त अन्य सिक्कों में शिव व ऋषभ को अग्रभाग में दिखाया गया। लिंग को पांच वर्गों में विभाजन मिलता है – स्वयंभू, दैव, पालक, आर्य व मानस।
शैव धर्म के प्रमुख संप्रदाय
श्वेताश्वर उपनिषद में शिव व् रूद्र का एकीकरण हुआ। वाजसनेय संहिता में कहा गया है कि रूद्र बलवान योद्धा है। वे “पिनाक” नामक धनुष, सृक/शूल नामक वज्र धारण करते है। शैव धर्म का संप्रदाय के रूप में उदय शुंग सातवाहन काल में हुआ। वामन पुराण में शैव संप्रदाय कुल 4 का उल्लेख है।
शैव संप्रदाय
शैव सिद्धांत दक्षिण भारत का प्रमुख शैव दर्शन है इसमें 3 सिद्धांत की प्रधानता दी गई है – पति (शिव), पशु (जीवात्मा), पाश (ब्रह्माण्ड स्वरुप बंधन) अर्थात पति द्वारा रचित पाश में पशु बंधा हुआ रहता है। इस पाश से मुक्ति के 4 पाद (उपाय) है – विद्या, क्रिया, योग, चर्या। शैव संप्रदाय के अनुसार सृष्टि के 3 रत्न हैं – शिव (कर्ता), शक्ति (कारण) एवं बिंदु (उपादान) शैव संप्रदाय में वेद, आगम, संतों की रचनाएं स्वीकार की जाती है। उपमितेश्वर भागवत शैव आचार्य थे।
पाशुपत संप्रदाय
शैव धर्म का सबसे प्राचीन सम्प्रदाय है जिसका उद्भव द्वितीय शताब्दी ई.पू. में हुआ था। इसका उल्लेख महाभारत में भी मिलता है जहाँ पाशुपत का संस्थापक शिव को माना गया। पुराणों के अनुसार इसका संस्थापक “लकुलीश” (द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व) को माना जाता है। जिन्हे भगवान शिव के 28 अवतार में से एक माना गया है। इनका जन्म स्थान कायारोहण (गुजरात) में हुआ था। ओडिशा के प्राचीनतम मंदिर लक्ष्मणेश्वर, भरतेश्वर व शत्रुघ्नेश्वर आदि में लकुलीश की उपस्थिति उन्हें पाशुपत संप्रदाय से जोड़ती है। नेपाल में स्थित पशुपतिनाथ मंदिर इसका प्रमुख केंद्र था।
लकुलीश ने पांचर्थ विद्या नामक ग्रन्थ की रचना की थी। इस मत के अनुयायी पांचर्थिक कहे जाते हैं। जो पाशुपत संप्रदाय के प्रमुख सिद्धांत कहलाये। जो निम्न है –
- कार्य – जिसमें स्वतंत्र शक्ति नहीं है उसे कार्य कहा जाता है। इसमें जड़ तथा चेतन की सभी सत्ताएं आ जाती है।
- कारण – जो सभी वस्तुओं की सृष्टि तथा संहार करता है यही कारण है, यही परमेश्वर (शिव) है।
- योग – इसके द्वारा चित्त के माध्यम से जीव तथा परमेश्वर संबंध स्थापित होता है जिसके दो प्रकार है-
- क्रियात्मक – जप, तप आदि
- अक्रियात्मक – क्रियाओ से नृवित्त होकर तत्व ज्ञान की प्राप्ति करना।
- विधि – जीव को महेश्वर की प्राप्ति कराने वाले साधन को विधि कहा जाता है। जैसे – शरीर पर भस्म, मंत्र, जप आदि।
- दुःखान्त – इसका अर्थ है दुखों से मुक्ति पाना, लौकिक एवं अलौकिक शक्तियों को प्राप्त करना।
कापालिक संप्रदाय
इस संप्रदाय के इष्ट देव भैरव है जो शिव के अवतार माने जाते हैं। यह संप्रदाय अत्यंत भयंकर एवं आसुर प्रवृति का था। इस संप्रदाय में भैरव को सूरा-सुंदरी एवं नरबलि दी जाती थी। मालतिमाधव के अनुसार श्रीशैल कापालिकों का प्रमुख केंद्र था इसमें उनके सिद्धियों का वर्णन है।
कालामुख संप्रदाय
यह संप्रदाय कापालिक से भी अतिमार्गी थे। ये मानव खोपड़ी में भोजन करना, मनुष्य का मांस खाना जैसे कार्य करते थे। कुछ अभिलेखीय साक्ष्यों में कालामुख, पाशुपतों की ही एक शाखा थे। बेलगांव का केदारेश्वर मंदिर (शिमोगा-कर्नाटक) इसका प्रमुख केंद्र था।
कश्मीरी शैव
इस दर्शन को विकसित करने वाले विद्वान कश्मीर के निवासी थे। इसका मत प्रतिपादक “वसुगुप्त” को माना जाता है। इनका मत कर्मकाण्ड विरोधी व शुद्ध रूप से दार्शनिक व ज्ञानमार्गी था। इसके मत को “त्रिक दर्शन” कहा जाता है। इसके दो मान्यताएं है –
- इस मत की तीन शाखाएं (आगम शास्त्र, स्पन्दन शास्त्र, प्रत्याभिज्ञा शास्त्र) होना।
- कुल 92 आगमों में से सिद्ध (पशु), यमक (पति) व मालिनी (पाश) में ही विश्वास करना।
लिंगायत संप्रदाय
इस संप्रदाय की विशेषता कर्म की प्रधानता है। इसलिए इसे वीरधर्म और वीरमार्ग कहा गया। इसके चार श्रेणियाँ है – जंगम, शीलवन्त, वणिक और पंचमशील। इस संप्रदाय का उद्भव 12वीं शताब्दी में उत्तर-पश्चिम कर्नाटक में हुआ। इसके वास्तविक संस्थापक बसव या बसवण्ण (वासवराज) थे। लिंगायत संप्रदाय में लिंग पूजा के तीन भेद बताये गए है –
- भाव लिंग – यह सर्वश्रेष्ठ परमतत्त्व है जो दिक्काल की सीमा से परे है। इसका साक्षात्कार श्रद्धा से होता है।
- प्राण लिंग – यह सूक्ष्म तत्त्व है जो कलाविहीन एवं कलायुक्त दोनों है। इसका ज्ञान सूक्ष्म दृष्टि से होता है।
- इष्ट लिंग – या स्थूल रूप है जिसे नेत्रों से देखा जा सकता है।
शैव सिद्धांत एवं शैवाचार्य (Shaivism)
उत्तर भारत तथा दक्षिण भारत के संप्रदाय के सबसे प्रामाणिक ग्रन्थ को आगम माना जाता है। आगम को शैव धर्म का बाइबल कहा जाता है। आगम की संख्या कुल 28 है जिसकी रचना 400-800 ईस्वी के मध्य तमिल क्षेत्र में हुई। मेकंडदेव द्वारा रचित “शिव ज्ञान बोधम” शैव सिद्धांत शास्त्र का सर्वप्रधान ग्रंथ है।
शैव संप्रदाय | संस्थापक |
आगंमत संप्रदाय | अघोर शिवाचार्य (चिदंबरम, 12वीं सदी ई.) |
शैव विशिष्टाद्वैत वाद | श्रीकण्ठ आचार्य |
वीर शैव विशिष्टाद्वैत वाद | श्रीपति आचार्य |
भगवान शिव के पंच रूप एवं कार्य
शिव के पंच रूप | कार्य |
ईशान-मस्तक | सृष्टि |
तत्पुरुष-मुख | पालन |
घोर-हृदय | संहार |
कामदेव-गुहाअंग | तिरोभाव |
सघोजात-पैर | प्रसाद |
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