हड़प्पा सभ्यता का धार्मिक जीवन:- हड़प्पा या सिन्धु संस्कृति का उदय भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिमोत्तर भाग में हुआ। हड़प्पा संस्कृति नाम पड़ने के कारण सबसे पहले 1921 में पाकिस्तान के पश्चिमी पंजाब प्रान्त में अवस्थित हड़प्पा के आधुनिक स्थल में पता चलना है। हड़प्पा संस्कृति का केन्द्र-स्थल पंजाब और सिन्ध में मुख्यतः सिन्ध घाटी में पड़ता है। जान मार्शल ने 1931 में इस सभ्यता की तिथि लगभग 3250 ई.पू.से 2750 ई.पू. निर्धारित किया। रेडियों कार्बन-14 (सी-14) जैसी नवीन विश्लेषण पद्धति के द्वारा हड़प्पा सभ्यता की तिथि 2500 ई.पू. से 1750 ई.पू. माना गया है। नवीन शोध के अनुसार यह सभ्यता लगभग 8,000 साल पुरानी है।
हड़प्पा सभ्यता का धार्मिक जीवन
जॉन मार्शल द्वारा कुछ तत्वों को रेखांकित किया गया जिसे मोटे तौर पर हड़प्पाई धर्म से जोड़ा गया सैन्धव नगर के खुदाई के दौरान किसी मंदिर, समाधि आदि के अवशेष नहीं मिले हैं। मोहनजोदाड़ो की मुहर पर योगी की आकृति (पशुपति) लिंगीय प्रस्तरों, मातृदेवी की मृण्मूर्तियां तथा हवन कुंडों (जैसे कालीबंगा में) से हड़प्पा वासियों के धार्मिक तत्वों का बोध होता है। हड़प्पा की सभ्यता मिस्र तथा मेसोपोटामिया की भांति पूर्णतः ईश्वरवादी थी।
मातृदेवी की उपासना
हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, बनावली व चन्हूदड़ो से बहुसंख्यक स्त्री मृण्मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। उनकी आकृति “कृशकाय” है तथा वे प्रायः पंखाकार शिरोभूषा, कई लड़ी वाले हार, चूड़ियां, मेखला, कर्णाभरण व छोटा लहंगा पहनें हैं, ऐसी कुछ मूर्तियों के सिर पर काले अवशेष पाए जाते हैं। हड़प्पा से प्राप्त एक मुहर पर एक नग्न स्त्री, सिर झुकाए दोनों पैर फैलाए हैं एक पौधा उसके गर्भ से निकल रहा है तथा दूसरी तरफ हँसिये के प्रकार का चाकू लिए खड़ा आदमी चित्रित है। इससे स्पष्टतः यह मानव बलि का दृश्य है। इस देवी की व्याख्या मार्शल ने शाकम्भरी अर्थात पृथ्वी/धरती माता बताया है। इन्हे उर्वरता की देवी कहा गया। मूर्तिपूजा का प्रारम्भ हड़प्पा सभ्यता माना जाता है।
पुरुष देवता
हड़प्पा सभ्यता का सबसे विचित्र देवता एक श्रृंगयुक्त देवता है। मोहनजोदड़ो से मैके सेलखड़ी की मुहर “पशुपति मुहर” (सील सं. 420) से हड़प्पा संस्कृति के लोगों के धार्मिक विश्वास पर महत्वपूर्ण प्रकाश पड़ा है। इस मुहर पर एक त्रिमुखी पुरुष आकृति का अंकन है। धर्म प्रवचन करते हुए महात्मा बुद्ध की बनारस स्थित “मृग दाव” की मूर्तियों में अंकित है। मुहर पर सिंधु लिपि में 7 अक्षरों का लेख उत्कीर्ण है।
मार्शल ने एक रूद्र-शिव को हिन्दू धर्म से जोड़ा जिसे महायोगी तथा पशुपति के जाना जाता है। प्राक हड़प्पा कालीन कालीबंगा, कोटदीची, पादरी से प्राप्त मृदभाण्डों पर “सींग वाले देवता” का अंकन मिलता है। मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक ताम्र फलक पर धनुष-बाण लिए पुरुष का अंकन “किरात शिव” घोतक है।
लिंग व योनि पूजा
हड़प्पावासियों के प्रजनन पंथ सम्बन्धी विश्वासों का एक और आयाम लिंग व योनि के पत्थर की प्रतिकृति के रूप में पूजा भी शामिल थी। पत्थर, सीप, कांचली मिट्टी व पेस्ट से बानी लिंग के अमन मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, लोथल आदि स्थानों से प्राप्त हुआ जिससे यह स्पष्ट होता है कि लिंग पूजा उस समय प्रचलित थी। कालीबंगा से हाल ही में टेराकोटा निर्मित लिंग व उससे जुड़ी योनिपीठ प्राप्त हुई जो इस तरह का एक मात्र उदाहरण है।
पशु-पक्षी व वृक्ष पूजा
पीपल का पेड़ हड़प्पा सभ्यता का सबसे पवित्र वृक्ष था। मुद्राओ पर इसी का सर्वाधिक अंकन मिलता है। मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक सील पर एक कतार में खड़े सात लोगों की आकृतियां बनी है जो पीपल के एक वृक्ष के नीचे खड़े सींग वाली आकृति को देख रहे हैं। मोहनजोदड़ो की कुछ मुद्राएं पर अर्ध-मानव व अर्ध-पशु आकृति को बाघ पर आक्रमण को अंकित किया गया जो संभवतः सुमेरियन धर्मगाथा के “गिल्गामेश आख्यान” का अंकन था। “फाख्ता” (बत्तख) नामक पक्षी हड़प्पा सभ्यता का सबसे पवित्र पक्षी था। योग क्रिया का प्रचलन भी हड़प्पा सभ्यता का देन है। नाग पूजा भी प्रचलित थी लोथल से प्राप्त कुछ मृदभाण्ड के ऊपर सर्प की आकृति बनी हुई है।
कालीबंगा की अग्निवेदिकाएं
कालीबंगा का सिटाडेल उत्तरी और दक्षिणी भागों में बंटा हुआ है। जिसमें एक कतार में 7 गढ्ढे जो 75×55 आकार में था। ये संभवतः यज्ञ वेदियां या अग्निकुंड थीं। इन गढ्ढों में राख, चारकोल और आयताकार मिट्टी व टेराकोटा केक पाए गए। राखीगढ़ी की एक अग्निवेदिका में खड़ी सीधी ईंट मिली जो संभवतः “स्तम्भ यष्टि” का प्रतीक है। कालीबंगा व लोथल से पशु-बलि के साक्ष्य मिले हैं।
अंत्येष्टि संस्कार व पुनर्जन्म में विश्वास
हड़प्पावासी स्पष्ट रूप से धन का उपयोग अपने जीवन काल में करने को प्राथमिकता देते थे। यहाँ से अंतिम संस्कार की तीन विधियां प्रचलित थी – पूर्ण समाधिकरण, आंशिक समाधिकरण व दाह संस्कार। मोहनजोदड़ो में दाह संस्कार प्रचलित था यहाँ शवों को लिटाकर उत्तर की दिशा में इन्हे गढ्ढे या ईटों से बने कब्र में दफनाया जाता था। आंशिक समाधिकरण में शव को खुले मैदान में जानवर को खाने के छोड़ देते फिर बची हुई हड्डी को गाड़ देते थे। मोहनजोदड़ो, हड़प्पा व बहावलपुर क्षेत्र में इसके उदाहरण मिलते हैं।
हड़प्पा क्षेत्र से तीन कक्षों वाला “R-37” कब्रिस्तान मिला है इसमें शव काष्ठ पेटिका (कॉफिन-ताबूत) मिली है जो देवदार लकड़ी से निर्मित है। संभवतः यह विदेशी की कब्र है। लोथल से तीन युग्म शवाधान और कालीबंगा से एक युग्म शवाधान प्राप्त हुए। जो सती प्रथा का प्रमाण देते हैं।