सैन्धव सभ्यता (Indus Valley Civilization) के लिए सामान्यतः तीन नामों का प्रयोग होता है – “सिन्धु सरस्वती सभ्यता”, “सिन्धु घाटी सभ्यता” और “हड़प्पा सभ्यता”। शुरुआत में पश्चिमी पंजाब के हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ों की खोज हुई। इसके सिंधु नदी के पास होने कारण इसे सिन्धु घाटी की सभ्यता का नाम दिया गया।
हड़प्पा या सिन्धु संस्कृति का उदय भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिमोत्तर भाग में हुआ। हड़प्पा संस्कृति नाम पड़ने के कारण सबसे पहले 1921 में पाकिस्तान के पश्चिमी पंजाब प्रान्त में अवस्थित हड़प्पा के आधुनिक स्थल में पता चलना है। हड़प्पा संस्कृति का केन्द्र-स्थल पंजाब और सिन्ध में मुख्यतः सिन्ध घाटी में पड़ता है।
यह सभ्यता अपने विशिष्ट नगर नियोजन और जल निकासी व्यवस्था के लिए प्रसिद्ध है तथा दजला-फरात और नील घाटी सभ्यताओं की समकालीन थी। सन् 1921 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के महानिदेशक सर जान मार्शल के निर्देशन में राय बहादुर दयाराम साहनी ने पंजाब (वर्तमान पाकिस्तान) के माण्टगोमरी जिले में रावी नदी के तट पर स्थित हड़प्पा का अन्वेषण किया।
जान मार्शल ने सर्वप्रथम इसे सिन्धु सभ्यता का नाम दिया। इस सभ्यता के अब तक 350 से अधिक स्थलों की पहचान की जा चुकी है। इनमें से अधिकांश स्थल (लगभग 200) गुजरात में पाए गये हैं। विभाजन के पूर्व उत्खनित अधिकांश स्थल विभाजन (1947) के बाद पाकिस्तान में चले गये।
सैन्धव सभ्यता काल निर्धारण (Indus Valley Civilization time)
सिन्धु घाटी सभ्यता की तिथि को निर्धारित कई भारतीय पुरातत्व ने मिले साक्ष्यों के आधार पर किया है। यह सभ्यता आरम्भ से ही विकसित रूप में दिखाई पड़ती है। इस क्षेत्र का सर्वप्रथम जान मार्शल ने 1931 में इस सभ्यता की तिथि लगभग 3250 ई.पू.से 2750 ई.पू. निर्धारित किया। रेडियों कार्बन-14 (सी-14) जैसी नवीन विश्लेषण पद्धति के द्वारा हड़प्पा सभ्यता की तिथि 2500 ई.पू. से 1750 ई.पू. माना गया है। जो सर्वाधिक मान्य है। नवीनतम आंकड़ों के अनुसार यह सभ्यता 400-500 वर्षां तक विद्यमान रही तथा 2200 ई.पू. से 2000 ई.पू. के मध्य में थी। नवीन शोध के अनुसार यह सभ्यता लगभग 8,000 साल पुरानी है।
सिन्धु घाटी सभ्यता का भौगोलिक विस्तार (Indus Valley Civilization)
हड़प्पा सभ्यता उत्तर से दक्षिण लगभग 1100 किमी. तक तथा पूर्व से पश्चिम लगभग 1600 किमी. तक फैली हुई थी। अभी तक उत्खनन तथा अनुसंधान द्वारा करीब 2800 स्थल ज्ञात किये गए हैं। सिंधु घाटी सभ्यता अपने त्रिभुजाकार स्वरूप में थी जिसका क्षेत्रफल लगभग 13 लाख वर्ग किमी. है।
सर्वप्रथम चार्ल्स मैसन ने 1826 ई. में सैंधव सभ्यता का पता लगाया, जिसका सर्वप्रथम वर्णन उनके द्वारा 1842 में प्रकाशित पुस्तक “नैरेटिव ऑफ़ जर्नीज” में मिलता है। उसके बाद वर्ष 1921 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के तत्कालीन अध्यक्ष सर जॉन मार्शल के नेतृत्व में पुरातत्तविद् दयाराम साहनी ने उत्खनन कर इसके प्रमुख नगर “हड़प्पा” का पता लगाया। सर्वप्रथम हड़प्पा स्थल की खोज के कारण इसका नाम “हड़प्पा सभ्यता” रखा गया। सर जॉन मार्शल के दिशानिर्देश में ही राखालदास बनर्जी द्वारा सिंधु घाटी सभ्यता के स्थल मोहनजोदड़ो की खोज 1922 में की गई।
सिंधु घाटी सभ्यता के निर्माताओं के निर्धारण का महत्वपूर्ण स्रोत उत्खनन से प्राप्त मानव कंकाल है। सबसे अधिक कंकाल मोहनजोदड़ो से प्राप्त हुए हैं। इनके परीक्षण से यह निर्धारित हुआ है कि सिंधु सभ्यता में चार प्रजातियां निवास करती थीं – भूमध्यसागरीय, प्रोटो-ऑस्ट्रेलॉयड, अल्पाइन तथा मंगोलॉयड। इनमें से सबसे ज्यादा भूमध्यसागरीय प्रजाति के लोग थे। इन्हे हड़प्पा सभ्यता के निर्माता माना जाता है।
सिन्धु घाटी सभ्यता की नगर योजना (Indus Valley Civilization)
सिंधु घाटी सभ्यता मे सड़के एक-दूसरे को समकोण पर काटती थीं। लगभग सभी नगर दो भागों में विभक्त थे – प्रथम भाग में ऊँचे दुर्ग निर्मित थे। इनमें शासक वर्ग निवास करता था।, दूसरे भाग में नगर या आवास क्षेत्र के साक्ष्य मिले हैं, जो अपेक्षाकृत बड़े थे। आमतौर पर यहां सामान्य नागरिक, व्यापारी, शिल्पकार, कारीगर और श्रमिक रहते थे।
सड़कों के किनारे की नालियां ऊपर से ढकी होती थीं। घरों का गंदा पानी इन्हीं नालियों से होता हुआ नगर की मुख्य नाली में गिरता था। हड़प्पा, मोहनजोदड़ो तथा कालीबंगा की नगर योजना लगभग एकसमान थी। कालीबंगा व रंगपुर को छोड़कर सभी में पकी हुई ईंटों का प्रयोग हुआ है। आमतौर पर प्रत्येक घर में एक आंगन, एक रसोईघर तथा एक स्नानागार होता था। अधिकांश घरों में कुओं के अवशेष भी मिले हैं।
बड़े-बड़े भवन हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो की विशेषता बतलाते हैं। हड़प्पाकालीन नगरों के चारों ओर प्राचीर बनाकर किलेबंदी की गई थी, जिसका उद्देश्य नगर को चोर, लुटेरों एवं पशु दस्युओं से बचाना था। मोहनजोदड़ो का विशाल स्नानागार सैंधव सभ्यता का अद्भुत निर्माण है, जबकि अन्नागार सिंधु सभ्यता की सबसे बड़ी इमारत है।
घरों के दरवाजे एवं खिड़कियां मुख्य सड़क पर न खुलकर गलियों में खुलती थीं, लेकिन लोथल इसका अपवाद है। इसके दरवाजे एवं खिड़कियां मुख्य सड़कों की ओर खुलती थीं। यद्यपि मकान बनाने में कई प्रकार की ईंटों का प्रयोग होता था, जिसमें 4 : 2 : 1 (लंबाई, चौड़ाई तथा मोटाई का अनुपात) के आकार की ईंटें ज्यादा प्रचलित थी।
सिन्धु घाटी सभ्यता के प्रमुख स्थल (Indus Valley Civilization)
1. हड़प्पा
सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेषों की खोज सर्वप्रथम 1921 ई. में हड़प्पा में की गई।हड़प्पा वर्तमान में रावी नदी के बायें तट पर पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के मोंटगोमरी जिले में स्थित है। स्टुअर्ट पिग्गट ने इसे “अर्द्ध-औद्योगिक नगर” कहा है। यहां के निवासियों का एक बड़ा भाग व्यापार, तकनीकी उत्पाद और धर्म के कार्यां में संलग्न था। उन्होंने हड़प्पा व मोहनजोदड़ो को “एक विस्तृत साम्राज्य की जुड़वां राजधानी” कहा था।
नगर की रक्षा के लिए पश्चिम की ओर एक दुर्ग का निर्माण किया गया था। यह दुर्ग उत्तर से दक्षिण की ओर 415 मीटर लंबा तथा पूर्व से पश्चिम की ओर 195 मीटर चौड़ा है। जिस टीले पर यह दुर्ग बना है उसे व्हीलर ने “माउंड AB” की संज्ञा प्रदान की है।
2. मोहनजोदड़ो
इसका सिंधी भाषा में अर्थ “मृतकों का टीला” होता है। यह सिंध (पाकिस्तान) के लरकाना जिले में सिंधु नदी के तट पर स्थित है। सर्वप्रथम इसकी खोज राखालदास बनर्जी ने 1922 ई. में की थी। मोहनजोदड़ो की शासन व्यवस्था राजतंत्रात्मक न होकर जनतंत्रात्मक थी।
यहाँ पर मिले वृहद् स्नानागार, मोहनजोदड़ो का सर्वाधिक महत्वपूर्ण सार्वजनिक स्थल है। इसके केन्द्रीय खुले प्रांगण के बीच जलकुंड या जलाशय बना है। तांबे तथा टिन को मिलाकर हड़प्पावासी कांसे का निर्माण करते थे। मोहनजोदड़ो से कांसे की एक नर्तकी की मूर्ति पायी गई है, जो द्रवी मोम विधि से बनी है।
3. चन्हूदड़ो
यह सैंधव नगर मोहनजोदड़ो से 130 किमी दक्षिण-पूर्व सिंध प्रांत (पाकिस्तान) में स्थित है। इसकी सर्वप्रथम खोज 1934 ई. में एन. गोपाल मजूमदार ने की थी तथा 1935 ई. में अर्नेस्ट मैके द्वारा यहां उत्खनन करवाया गया। चन्हूदड़ो एकमात्र पुरास्थल है, जहां से वक्राकार ईंटें मिली हैं।
चन्हूदड़ो में किसी दुर्ग का अस्तित्व नहीं मिला है। चन्हूदड़ो से पूर्वोत्तर हड़प्पाकालीन संस्कृति (झूकर-झांकर संस्कृति) के अवशेष मिले हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि यह एक औद्योगिक केंद्र था जहां मणिकारी, मुहर बनाने, भार-माप के बटखरे बननाने का काम होता था। अर्नेस्ट मैके ने यहां से मनका बनाने का कारखाना तथा भट्टी की खोज की है।
4. लोथल
अहमदाबाद के सरगवल गांव के पास साबरमती व इसकी सहायक भोगवा नदी के बीच खम्भात की खाड़ी में स्थित है। इसकी खोज 1954-55 में एस.आर. राव ने की। लोथल की बस्ती बाढ़ से बचाव के लिए एक रक्षा प्राचीर से घिरी हुई थी। इसके अंदर दुर्ग तथा निचला नगर था। यहाँ के घरो के दरवाजे सामने खुलते थे।
दिवार के घिरे क्षेत्र के बाहर उत्तर-पश्चिम में एक कब्रगाह मिले, जिसमे 3 युग्म (स्त्री-पुरुष) के शवाधान थे। यहाँ के कंकाल के सिर उत्तर तथा पैर दक्षिण दिशा में थे। लोथल प्रसिद्ध मिले बंदरगाह के कारण है, जिसे गोदीबाड़ा कहा जाता है, यह पूर्वी सिरे में स्थित है। यह विषम चतुर्भुजाकार आकार (214*36 m) का जल भंडार क्षेत्र है।
S. R. राव ने लोथल को “लघु हड़प्पा” या “लधु मोहनजोदड़ो” कहा। यहाँ घरों में कच्ची ईटों का प्रयोग किया जाता था। यहाँ के क्षेत्र में चार से छह कमरे, स्नानघर, एक विशाल आँगन और बरामदा है। यहाँ के घरो में वृत्ताकार या चतुर्भुजाकार अग्निवेदी मिली है। लोथल में पश्चिमी एशिया (मेसोपोटामिया व मिस्र) के साथ सामुद्रिक व्यापार का एक प्रमुख केंद्र था।
लोथल से प्राप्त :- ताम्र निर्मित पशु-पक्षी, मानव मूर्तियाँ, लकड़ी के अन्नागार, घोड़े की लघु मृण मूर्ति, धान और चावल के साक्ष्य, आटे पीसने की चक्की, दिशा मापक यंत्र, साहूल, हाथी दन्त के साक्ष्य।
5. राखीगढ़ी
हरियाणा के हिसार जिले के घग्घर नदी के किनारे में स्थित प्रमुख पुरातात्विक स्थल है। इसकी खोज 1969 में सूरजभान और प्रथम उत्खननकर्ता अमरेंद्रनाथ थे तथा द्वितीय उत्खननकर्ता बसंत सिंदे थे। यहां से L आकार के अन्नागार एवं रक्षा प्राचीर के साक्ष्य मिले हैं। मई 2012 में “ग्लोबल हैरिटेज फंड” ने इसे एशिया के दस ऐसे “विरासत-स्थलों” की सूची में शामिल किया है, जिनके नष्ट हो जाने का खतरा है।
यहाँ से प्राप्त – L आकार के अन्नागार, एक युगल समाधि, योगी की प्रतिमा, चाँदी और कांस्य की वस्तु में लिपटे सूती वस्त्र, अनाज (गेहूं, जौ, धान), अग्निवेदिकाएँ, बलि-वेदिकाएं, हाथी दाँत, सुई, कंघा, खुरचनी, बारहसिंगा के सींग आदि।
6. कालीबंगा
यह राजस्थान के गंगानगर जिले में घग्घर नदी के बायें तट पर है। कालीबंगा का शाब्दिक अर्थ “काले रंग की चूड़ियां” हैं। इसकी खोज 1951 में अमलानंद घोष द्वारा की गई तथा 1961 ई. में बी.बी. लाल और बी.के. थापर के निर्देशन में व्यापक खुदाई की गई। इसकी बसावट समानांतर चतुर्भुज आकार की थी। यहां से जुते हुए खेत का साक्ष्य मिला है।
यहां के भवनों का निर्माण कच्ची ईंटों द्वारा हुआ था, यहां से अलंकृत ईंटों के साक्ष्य भी मिले हैं। कालीबंगा में शवों के अंत्येष्टि संस्कार हेतु तीन विधियों-पूर्ण समाधीकरण, आंशिक समाधीकरण एवं दाह-संस्कार के प्रमाण मिले हैं। बी.बी. लाल ने इसे हड़प्पा सभ्यता के तीसरे राजधानी का अनुमान लगाया। यहाँ की जल निकासी मोहजोदड़ो के भाँति नहीं थी।
यहाँ से प्राप्त – हाथी दाँत का कंघा, वृषभ की कांस्य मूर्ति, पैर से चलित चक्की, ऊंट की हड्डी, पशुबलि का साक्ष्य, सीढ़ियों के साक्ष्य, ताम्र कुल्हाड़ी, सिलबट्टे, पहिये, भूकंप का प्राचीनतम साक्ष्य आदि।
7. बनवाली
हरियाणा के हिसार जिले के रंगोई नदी के किनारे में स्थित इस पुरास्थल की खोज 1973 ई. में आर.एस. बिष्ट ने की थी। इस स्थल से कालीबंगा की तरह हड़प्पा-पूर्व और हड़प्पाकालीन दोनों संस्कृतियों के अवशेष मिले हैं। यहां जल निकास प्रणाली का अभाव था। यहां से मिट्टी का बना हल मिला है। साथ ही अधिक मात्रा में जौ मिला है। इसे समृद्ध लोगो का नगर कहा जाता है।
8. धौलावीरा
यह गुजरात के कच्छ जिले के भचाऊ में स्थित है। इसकी खोज 1967 ई. में जे.पी. जोशी ने की थी। इसका उत्खनन R.S. बिष्ट ने किया था। यहां से प्राप्त होने वाली सिंधु लिपि के 10 बड़े चिन्हों से निर्मित शिलालेख महत्वपूर्ण उपलब्धि है। धौलावीरा के निवासी जल संरक्षण की तकनीक से परिचित थे। इसे सफ़ेद कुआँ भी कहते हैं, यहाँ बहुत से झील थे।
यहाँ के नगर तीन भागों में विभाजित था – दुर्ग, मध्य नगर तथा निचला नगर। धौलावीरा से हड़प्पा सभ्यता का एकमात्र खेल का मैदान (स्टेडियम) मिला है। घोड़े के कलाकृतियाँ के अवशेष, राजसभा के अवशेष, गिरगिट की प्रतिमा, प्रथम खगोलीय वेधशाला का साक्ष्य, जल प्रबंधन का उत्तम प्रमाण आदि।