अलंकार की परिभाषा:- अलंकार, साहित्य की वाणी में वह अद्वितीय तरंगा है जो भाषा को जीवंत, संवेदनशील, और सांगीतिक बनाता है। यह सौंदर्यशास्त्रीय उपकरण भाषा की सामर्थ्य और अद्वितीयता को प्रकट करता है, जिससे कविता, गीत, नाटक और अन्य साहित्यिक रचनाओं में उसका योगदान अनमोल होता है।
अलंकार की परिभाषा (Alankar Ki Paribhasha)
अलंकार का शाब्दिक अर्थ होता है- “आभूषण”, जिस प्रकार स्त्री की शोभा आभूषण से उसी प्रकार काव्य की शोभा अलंकार से होती है अर्थात जो किसी वस्तु को अलंकृत करे वह अलंकार कहलाता है। अलंकार शब्द का प्रथम उपयोग संस्कृत के विद्वान आचार्य भामह ने किया था। उन्होंने इसे सौंदर्यशास्त्रीय उपकरण के रूप में प्रस्तुत किया, जिसे भाषा की अद्वितीय सुंदरता और प्रभाव को प्रकट करने के लिए प्रयुक्त किया जाता है।
अलंकार दो शब्दों से मिलकर बना होता है- “अलम + कार“, यहाँ पर अलम का अर्थ होता है- “आभूषण“, जबकि कार का अर्थ- “करने वाला“। इसी लिए कहा गया है- “अलंकरोति इति अलंकारः“, अर्थात “जो अलंकृत करता है, वही अलंकार है।“
अलंकार का उपयोग काव्यिक भाषा को रंगीन और सौंदर्यपूर्ण बनाने में मदद करता है। इसे काव्य या साहित्यिक आभूषण के रूप में भी जाना जाता है, जिसे उपयोग करके कवि अपनी रचनाओं को आकर्षित और गंभीर बनाता है, जिससे पाठक को रस और आनंद का आनुभव होता है।
अलंकार के भेद (Alankar Ke Bhed)
अलंकार का शब्दिक अर्थ है “सजावट” या ‘अलंकरण’। भाषा और काव्य की धारा में, अलंकार का प्रयोग भाषा की विविधता, सुंदरता, और रस-रचना को बढ़ाने के लिए किया जाता है। यह वाक्यों की संरचना में गहराई और अर्थ में समृद्धि लाता है, जिससे पाठक और सुनने वाले का मन मोह लेता है। अलंकार की सही उपयोग से, एक साधारण वाक्य भी किसी विशेष भावना या भाव को प्रकट करने में सक्षम हो जाता है। यह वाक्य में मधुरता, गति, और ध्वनि की सुंदरता बढ़ाता है, जिससे पाठकों का मनोरंजन और उन्हें आनंद मिलता है।
अलंकार के प्रकारों की समझ से, हम भाषा की विविधता और उसकी असीमित समृद्धि का आनंद उठा सकते हैं। निम्नलिखित अनुभागों में हम इस अलंकार के भेदों की विस्तृत जानकारी प्रदान कर रहे हैं:
- अनुप्रास अलंकार
- यमक अलंकार
- पुनरुक्ति अलंकार
- विप्सा अलंकार
- वक्रोक्ति अलंकार
- श्लेष अलंकार
1. अनुप्रास अलंकार (Anupras Alankar) क्या है?
अनुप्रास शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है – अनु + प्रास, यहाँ पर अनु का अर्थ है- बार -बार और प्रास का अर्थ होता है – वर्ण। जब किसी वर्ण की बार – बार आवर्ती हो तब जो चमत्कार होता है उसे अनुप्रास अलंकार कहते है। जैसे-
उदाहरण: “चारु चन्द्र की चंचल किरणें खेल रही थी जल थल में।”
इस उदाहरण में “च” वर्ण की आवृत्ति से वाक्य की गति और समंगति प्राप्त होती है।
अनुप्रास के उपभेद:
- छेकानुप्रास अलंकार
- वृतानुप्रास अलंकार
- लाटानुप्रास अलंकार
- अत्नयानुप्रास अलंकार
- श्रुत्यानुप्रास अलंकार
छेकानुप्रास अलंकार
जहाँ पर स्वरुप और क्रम से अनेक व्यंजनों की आवृति एक बार हो वहाँ छेकानुप्रास अलंकार होता है वहाँ छेकानुप्रास अलंकार होता है। जैसे-
रीझि रीझि रहसि रहसि हँसि हँसि उठै।
साँसैं भरि आँसू भरि कहत दई दई।
वृत्यानुप्रास अलंकार
जब एक व्यंजन की आवर्ती अनेक बार हो वहाँ वृत्यानुप्रास अलंकार कहते हैं। जैसे-
चामर- सी ,चन्दन – सी, चंद – सी, चाँदनी चमेली चारु चंद- सुघर है।
लाटानुप्रास अलंकार
जहाँ शब्द और वाक्यों की आवर्ती हो तथा प्रत्येक जगह पर अर्थ भी वही पर अन्वय करने पर भिन्नता आ जाये वहाँ लाटानुप्रास अलंकार होता है। अथार्त जब एक शब्द या वाक्य खंड की आवर्ती उसी अर्थ में हो वहाँ लाटानुप्रास अलंकार होता है। जैसे-
तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे गुरु-पदवी के पात्र समर्थ,
तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे गुरु-पदवी थी जिनके अर्थ।
अन्त्यानुप्रास अलंकार
जहाँ अंत में तुक मिलती हो वहाँ पर अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है। जैसे-
लगा दी किसने आकर आग।
कहाँ था तू संशय के नाग ?
श्रुत्यानुप्रास अलंकार
जहाँ पर कानों को मधुर लगने वाले वर्णों की आवर्ती हो उसे श्रुत्यानुप्रास अलंकार कहते है। जैसे-
दिनान्त था , थे दीननाथ डुबते,
सधेनु आते गृह ग्वाल बाल थे।
2. यमक अलंकार (Yamak Alankar) क्या है?
यमक शब्द का अर्थ होता है – दो। यमक अलंकार एक प्रकार का अलंकार है जिसमें एक ही शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। इससे वाक्य का अर्थ प्रतिभावान और प्रतिरूपी होता है, जिससे भाषा में रूचिकर और विचित्रता आती है।
उदाहरण: “कनक कनक ते सौगुनी मादकता अधिकाय।”
इस उदाहरण में ‘कनक’ शब्द का दोहरा प्रयोग होकर उसकी धातु और स्वर्ण दोनों अर्थों में वाक्य को संवादित किया गया है।
3. पुनरुक्ति अलंकार क्या है ?
पुनरुक्ति अलंकार दो शब्दों से मिलकर बना है- पुन: +उक्ति। जब कोई शब्द दो बार दोहराया जाता है वहाँ पर पुनरुक्ति अलंकार होता है। जैसे-
ठुमुकि-ठुमुकि रुनझुन धुनि-सुनि,
कनक अजिर शिशु डोलत।
4. विप्सा अलंकार क्या है?
जब आदर, हर्ष, शोक, विस्मयादिबोधक आदि भावों को प्रभावशाली रूप से व्यक्त करने के लिए शब्दों की पुनरावृत्ति को ही विप्सा अलंकार कहते है। जैसे-
मोहि-मोहि मोहन को मन भयो राधामय।
राधा मन मोहि-मोहि मोहन मयी-मयी।
5. वक्रोक्ति अलंकार
जहाँ पर वक्ता के द्वारा बोले गए शब्दों का श्रोता अलग अर्थ निकाले उसे वक्रोक्ति अलंकार कहते है।
वक्रोक्ति अलंकार के भेद
- काकु वक्रोक्ति अलंकार
- श्लेष वक्रोक्ति अलंकार
काकु वक्रोक्ति
जब वक्ता के द्वारा बोले गये शब्दों का उसकी कंठ ध्वनी के कारण श्रोता कुछ और अर्थ निकाले वहाँ पर काकु वक्रोक्ति अलंकार होता है। जैसे- मैं सुकुमारि नाथ बन जोगू।
श्लेष वक्रोक्ति अलंकार
जहाँ पर श्लेष की वजह से वक्ता के द्वारा बोले गए शब्दों का अलग अर्थ निकाला जाये वहाँ श्लेष वक्रोक्ति अलंकार होता है। जैसे-
को तुम हौ इत आये कहाँ घनस्याम हौ तौ कितहूँ बरसो ।
चितचोर कहावत है हम तौ तहां जाहुं जहाँ धन सरसों।।
6. श्लेष अलंकार
श्लेष अलंकार एक अलंकार है जिसमें वाक्य में दोहरापन या अद्वितीयता दिखाई जाती है। इसमें दो प्रकार के अर्थ होते हैं, जो वाक्य को मजेदार और प्रतिरूपी बनाते हैं। यह अलंकार भाषा में खास पहचान बनाता है और पाठक का ध्यान आकर्षित करता है।
रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून।
पानी गए न उबरै मोती मानस चून।।
इस उदाहरण में ‘पानी’ शब्द का तीन अलग-अलग अर्थ निकलते हैं – ‘कान्ति’, ‘आत्मसम्मान’, और ‘जल’।
अर्थालंकार (Artha Alankar) क्या होता है?
अर्थालंकार वह अलंकार है जिसमें शब्दों या वाक्यांशों के अर्थ में विवेकशीलता दिखाई जाती है। इस अलंकार में वाक्य में छिपी मतलब की पहचान होती है, जिससे भाषा में एक प्रकार का अद्वितीयता उत्पन्न होता है।
उपमा अलंकार (Upma Alankar)
उपमा शब्द का अर्थ होता है – तुलना। जब किसी व्यक्ति या वस्तु की तुलना किसी दूसरे यक्ति या वस्तु से की जाए वहाँ पर उपमा अलंकार होता है। जैसे-
उदाहरण: “कर कमल-सा कोमल है।”
इस उदाहरण में कर और कमल के बीच की समानता को दर्शाते हुए वाक्य को संवादित किया गया है।
उपमा अलंकार के अंग
उपमा अलंकार के चार अंग होते हैं – उपमेय, उपमान, वाचक शब्द और साधारण धर्म।
- उपमेय:- उपमेय का अर्थ होता है – उपमा देने के योग्य। अगर जिस वस्तु की समानता किसी दूसरी वस्तु से की जाये वहाँ पर उपमेय होता है।
- उपमान:- उपमेय की उपमा जिससे दी जाती है उसे उपमान कहते हैं। अथार्त उपमेय की जिस के साथ समानता बताई जाती है उसे उपमान कहते हैं।
- वाचक शब्द:- जब उपमेय और उपमान में समानता दिखाई जाती है तब जिस शब्द का प्रयोग किया जाता है उसे वाचक शब्द कहते हैं।
- साधारण धर्म:- दो वस्तुओं के बीच समानता दिखाने के लिए जब किसी ऐसे गुण या धर्म की मदद ली जाती है जो दोनों में वर्तमान स्थिति में हो उसी गुण या धर्म को साधारण धर्म कहते हैं।
उपमा अलंकार के भेद
- पूर्णोपमा अलंकार
- लुप्तोपमा अलंकार
पूर्णोपमा अलंकार
इसमें उपमा के सभी अंग होते हैं – उपमेय , उपमान , वाचक शब्द , साधारण धर्म आदि अंग होते हैं वहाँ पर पूर्णोपमा अलंकार होता है। जैसे –
सागर -सा गंभीर ह्रदय हो ,
गिरी -सा ऊँचा हो जिसका मन।
लुप्तोपमा अलंकार
इसमें उपमा के चारों अगों में से यदि एक या दो का या फिर तीन का न होना पाया जाए वहाँ पर लुप्तोपमा अलंकार होता है। जैसे –कल्पना सी अतिशय कोमल।
रूपक अलंकार (Roopak Alankar)
जहाँ पर उपमेय और उपमान में कोई अंतर न दिखाई दे वहाँ रूपक अलंकार होता है अथार्त जहाँ पर उपमेय और उपमान के बीच के भेद को समाप्त करके उसे एक कर दिया जाता है वहाँ पर रूपक अलंकार होता है। जैसे-
उदाहरण: “मैया मैं तो चन्द्र-खिलौना लैहों।”
इस उदाहरण में चन्द्रमा को खिलौना तुलित किया गया है, जिससे वाक्य की गहराई बढ़ती है।
रूपक अलंकार के भेद
- सम रूपक अलंकार
- अधिक रूपक अलंकार
- न्यून रूपक अलंकार
सम रूपक अलंकार
इसमें उपमेय और उपमान में समानता दिखाई जाती है वहाँ पर सम रूपक अलंकार होता है। जैसे-
बीती विभावरी जागरी,
अम्बर – पनघट में डुबा रही ,
तारघट उषा – नागरी।
अधिक रूपक अलंकार
जहाँ पर उपमेय में उपमान की तुलना में कुछ न्यूनता का बोध होता है वहाँ पर अधिक रूपक अलंकार होता है।
न्यून रूपक अलंकार
इसमें उपमान की तुलना में उपमेय को न्यून दिखाया जाता है वहाँ पर न्यून रूपक अलंकार होता है। जैसे-
जनम सिन्धु विष बन्धु पुनि, दीन मलिन सकलंक
सिय मुख समता पावकिमि चन्द्र बापुरो रंक।
उत्प्रेक्षा अलंकार (Utpreksha Alankar)
उत्प्रेक्षा अलंकार एक अलंकार है जिसमें शब्दों का अव्यवस्थित अनुक्रमण या अनुसरण होता है, जिससे वाक्य का अर्थ गूंथा-गूंथा होता है और पठन को रोचक बनाने में मदद मिलती है। इस अलंकार में शब्दों का अनियमित व्यवस्थापन होता है, जिससे पठक को अर्थ को खोजने में जोर देना पड़ता है।
उदाहरण: “उसका मुख मानो चन्द्रमा है।”
इस उदाहरण में मुख को चन्द्रमा की उपमेयता में उत्प्रेक्षित किया गया है।
उत्प्रेक्षा अलंकार के भेद
- वस्तुप्रेक्षा अलंकार
- हेतुप्रेक्षा अलंकार
- फलोत्प्रेक्षा अलंकार
वस्तुप्रेक्षा अलंकार
जहाँ पर प्रस्तुत में अप्रस्तुत की संभावना दिखाई जाए वहाँ पर वस्तुप्रेक्षा अलंकार होता है। जैसे-
सखि सोहत गोपाल के, उर गुंजन की माल।
बाहर लसत मनो पिये, दावानल की ज्वाल
हेतुप्रेक्षा अलंकार
जहाँ अहेतु में हेतु की सम्भावना देखी जाती है। अथार्त वास्तविक कारण को छोडकर अन्य हेतु को मान लिया जाए वहाँ हेतुप्रेक्षा अलंकार होता है।
फलोत्प्रेक्षा अलंकार
इसमें वास्तविक फल के न होने पर भी उसी को फल मान लिया जाता है वहाँ पर फलोत्प्रेक्षा अलंकार होता है। जैसे-
खंजरीर नहीं लखि परत कुछ दिन साँची बात।
बाल द्रगन सम हीन को करन मनो तप जात।
अतिशयोक्ति अलंकार (Atishayokti Alankar)
जब किसी व्यक्ति या वस्तु का वर्णन करने में लोक समाज की सीमा या मर्यादा टूट जाये उसे अतिश्योक्ति अलंकार कहते हैं। जैसे-
हनुमान की पूंछ में लगन न पायी आगि।
सगरी लंका जल गई , गये निसाचर भागि।
इस उदाहरण में हनुमान की पूँछ को इस प्रकार से प्रशंसा की गई है कि उसमें आग नहीं लगती, जिससे वाक्य की गहराई बढ़ती है।
मानवीकरण अलंकार (Manvikaran Alankar)
जहाँ पर काव्य में जड़ में चेतन का आरोप होता है वहाँ पर मानवीकरण अलंकार होता है अथार्त जहाँ जड़ प्रकृति पर मानवीय भावनाओं और क्रियांओं का आरोप हो वहाँ पर मानवीकरण अलंकार होता है। जैसे-
बीती विभावरी जागरी ,
अम्बर पनघट में डुबो रही
तारा घट उषा नगरी।
उभयालंकार (Ubhaya Alankar)
ऐसा अलंकार जिसमें शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों का योग हो। अर्थात जो अलंकार शब्द और अर्थ दोनों पर आधारित रहकर दोनों को चमत्कारी करते हैं वहाँ उभयालंकार होता है। जैसे-
कजरारी अंखियन में कजरारी न लखाय।
इस अलंकार में शब्द और अर्थ दोनों है।
उभयालंकार के भेद
- संसृष्टि
- संकर
संसृष्टि
तिल-तंडुल-न्याय से परस्पर-निरपेक्ष अनेक अलंकारों की स्थिति “संसृष्टि” अलंकार है (एषां तिलतंडुल न्यायेन मिश्रत्वे संसृष्टि:- रुय्यक : अलंकारसर्वस्व)। जिस प्रकार तिल और तंडुल (चावल) मिलकर भी पृथक् दिखाई पड़ते हैं, उसी प्रकार संसृष्टि अलंकार में कई अलंकार मिले रहते हैं, किंतु उनकी पहचान में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती। संसृष्टि में कई शब्दालंकार, कई अर्थालंकार अथवा कई शब्दालंकार और अर्थालंकार एक साथ रह सकते हैं।
दो अर्थालंकारों की संसृष्टि का उदाहरण लें
भूपति भवनु सुभायँ सुहावा। सुरपति सदनु न परतर पावा।
मनिमय रचित चारु चौबारे। जनु रतिपति निज हाथ सँवारे।।
प्रथम दो चरणों में प्रतीप अलंकार है तथा बाद के दो चरणों में उत्प्रेक्षा अलंकार। अतः यहाँ प्रतीप और उत्प्रेक्षा की संसृष्टि है।
संकर (Fusion of Figures of Speech)
नीर-क्षीर-न्याय से परस्पर मिश्रित अलंकार “संकर” अलंकार कहलाता है। (क्षीर-नीर न्यायेन तु संकर:- रुय्यक : अलंकारसर्वस्व)। जिस प्रकार नीर-क्षीर अर्थात पानी और दूध मिलकर एक हो जाते हैं, वैसे ही संकर अलंकार में कई अलंकार इस प्रकार मिल जाते हैं जिनका पृथक्क़रण संभव नहीं होता। जैसे-
सठ सुधरहिं सत संगति पाई। पारस-परस कुधातु सुहाई।
तुलसीदास -पारस-परस’ में अनुप्रास तथा यमक- दोनों अलंकार इस प्रकार मिले हैं कि पृथक करना संभव नहीं है, इसलिए यहाँ ‘संकर’ अलंकार है।
पाश्चात्य अलंकार (Pashchatya Alankar)
पाश्चात्य अलंकार भाषा में विशेष प्रयोग या संरचना को प्रस्तुत करने के लिए उचित शब्दों और तकनीकों का उपयोग करता है। इस अलंकार में शब्दों और वाक्यों का विकसित और विवेकपूर्ण उपयोग होता है, जो वाक्य को अधिक प्रोफेशनल और प्रभावशाली बनाता है।
उदाहरण: “सुना समुंदर का सुकून सुनी खाली रात”
इसमें ‘स’ ध्वनि से शुरू होने वाले शब्दों का प्रयोग किया गया है। यह पाश्चात्य अलंकार वाक्य की मेलोडियसता बढ़ाता है।
अलंकार का उपयोग (Use of Alankar)
अलंकार साहित्य को एक नवीन और अनूठा चार्म प्रदान करता है, जिससे वह सुंदर और प्रफुल्लित होता है। यह उसे अद्वितीयता और अलगाव की पहचान दिलाता है। इसके माध्यम से शब्दों का जादूगरी प्रभाव प्रस्तुत होता है, जो उन्हें आकर्षित बनाता है और भावनाओं को जागरूक करता है।
अलंकार वाक्यों को एक विशेषता और मजबूती प्रदान करता है, जिससे वे अधिक जीवंत और सामाजिक अनुभव को प्रस्तुत कर सकते हैं। इससे साहित्य की व्यक्तिगतता और उसका महत्व बढ़ता है। अलंकार का अभाव साहित्य को असंगत और अधूरा बना देता है, जैसे कि एक गीत बिना स्वर और ताल के।