हड़प्पा सभ्यता: राजनैतिक संगठन, प्रशासन एवं धर्म

हड़प्पा सभ्यता प्राचीन लोगों की तरह सिंधु वासी भी बाह्य एवं बुरी शक्तियों के अस्तितिव में विश्वास रखते थे तथा उनसे अपनी रक्षा के लिए ताबीज का उपयोग करते थे।

सिंधु सभ्यता में प्रजातियों

सिंधु सभ्यता में चार प्रजातियों का पता चलता है –

  • भूमध्यसागरीय,
  • प्रोटोआस्ट्रेलियाड,
  • मंगोलाइड,
  • अल्पाइन

सिंधु सभ्यता में ज्यादातर भूमध्यसागरीय प्रजाति के लोग थे। सिंधु का समाज चार वर्गों में विभाजित था –

  • योद्धा,
  • विद्वान,
  • व्यापारी और
  • श्रमिक।

परिवार समाज की सबसे छोटी इकाई थी। परिवार में पुरुष की प्रधानता थी या स्त्री की यानी परिवार पितृसत्तात्मक था या मातृसत्तात्मक इसका अनुमान किया जाना विद्यानों के लिए भी बहुत मुश्किल था। चूँकि मातृसत्तात्मक समाज प्राक्-आर्य सभ्यता में पाए जाते हैं इसलिए अधिकतर विद्वानों का यह विचार है कि सिंधु-समाज मातृसत्तात्मक ही था। विशेष खुदाई से पता चला कि औरतों को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया था। खुदाइयों में प्राप्त बड़ी संख्या में स्त्री-मूर्तियों को देखने से भी मातृसत्तात्मक समाज के होने का संकेत मिलता है। हड़प्पा सभ्यता के लेाग युद्ध प्रिय कम और शांति प्रिय अधिक थे। हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो में दो तरह के भवन मिलने के आधार पर लोग कहते हैं कि बड़े घरों में अमीर लोग रहते थे तथा छोटे घरों में मजदूर, गरीब अथवा दास रहते थे।

हड़प्पा सभ्यता में राजनीतिक संगठन एवं प्रशासन

हंटर ने यहाँ के शासन को जनतंत्रात्मक शासन कहा है। मैके के अनुसार, यहाँ एक प्रतिनिधि शासक शासन का प्रधान था, परन्तु उसका स्वरूप क्या था यह निश्चित नहीं है। पिगट इसे दो राजधानियों वाला राज्य मानते हैं जिसका शासन पुरोहित राजा दो राजधानियों से चलाता था। ह्वीलर के अनुसार, हड़प्पा में सुमेर और अक्कड़ पुरोहित शासक राज्य करते थे। यहाँ का शासन तंत्र धर्म पर आधारित पुरोहित राजाओं का निरंकुश राजतंत्र था।

लेकिन नगर-निर्माण योजना को देखते हुए यह अनुमान लगाया जा सकता है कि जो भी शासन-व्यवस्था रही होगी वह सुदृढ़ होगी क्योंकि इस हड़प्पा सभ्यता के विभिन्न स्थलों पर एक जैसी भवन-निर्माण योजना, सड़कों एवं नालियों का प्रबंध, माप-तौल के साधन आदि देखने को मिलते हैं। युद्ध-संबंधी अस्त्र-शस्त्रों के अभाव को देखते हुए कहा जा सकता है कि राज्य में शांति एवं सुव्यवस्था थी तथा जनता आंतरिक एवं बाह्य खतरों से बहुत हद तक मुक्त थी। राज्य के दो प्रशासनिक केंद्र हड़प्पा और मोहनजोदड़ो थे जहाँ से संपूर्ण क्षेत्र पर शासन किया जाता होगा। प्रो. आर. एस. शर्मा के अनुसार – “संभवतः हड़प्पा संस्कृति के नगरों में व्यापारी वर्ग का शासन चलता था।”

मत विचारक
1. हड़प्पा कालीन प्रशासन “माध्यम-वर्गीय जनतंत्रात्मक शासन” था तथा उसमें धर्म की प्रधानता थी.व्हीलर
2. सिन्धु प्रदेश के शासन पर पुरोहित वर्ग का प्रभाव थास्टुअर्ट पिगट
3. मोहनजोदड़ो का शासन राजतंत्रात्मक न होकर जनतंत्रात्मक थाहंटर
4. हड़प्पा कालीन प्रशासन गुलामों पर आधारित प्रशासन थाबी.बी. स्टुर्ब
5. सैन्धव काल में कई छोटे-बड़े राज्य रहे होंगे तथा प्रत्येक का अलग-अलग मुख्यालय रहा होगा.बी.बी. लाल
6. मोहनजोदड़ो का शासन एक प्रतिनिधि शासक के हाथों में थामैके

हड़प्पा सभ्यता में लिपि का विकास

1853 ई. में सर्वप्रथम सिंधु लिपि का साक्ष्य मिला। 1923 ई. से यह लिपि संपूर्ण रूप में प्रकाश में आई। इस लिपि में लगभग 64 मूल चिह्न हैं एवं 250-400 तक अक्षर हैं जो सेलखड़ी की आयताकार मुहरों एवं तांबे की गुटिकाओं आदि पर मिलते हैं। लिपि चित्राक्षर थी। यह लिपि बाउसट्रोफेन्डम लिपि कहलाती है। यह दाएँ से बाएँ और पुन: बाएँ से दाएँ लिखी जाती है। यह लिपि अत्यंत छोटे-छोटे अभिलेखों में मिलती है। इस लिपि में प्राप्त सबसे बड़े लेख में लगभग 17 चिह्न थे। विद्वानों ने सैन्धव लिपि पढ़ने के काफी प्रयास किये हैं किन्तु अभी तक विशेष सफलता नहीं मिली है।

1931 ई. में लैंगडन एवं बाद में सी.जे. गैड्स तथा सिडनी स्मिथ ने इन लेखों को संस्कृत भाषा के निकट माना है। प्राणनाथ ने ब्राह्मी लिपि का सैन्धव लिपि से तुलनात्मक अध्ययन कर दोनों के लिपि चिह्नों के ध्वनि निर्धारण करने की चेष्टा की है। 1934 ई. में हण्टर ने सैन्धव लिपि का वैज्ञानिक विश्लेषण कर पढ़ने का प्रयास किया है। द्रविड़ भाषा के अधिक निकट मानते हुए फादर हरास ने सैन्धव लिपि को द्रविड़ भाषा से सम्बद्ध करने का प्रयत्न किया है। स्वामी शकरानन्द ने तान्त्रिक प्रतीकों के आधार पर सैन्धव लिपि को पढ़ने की कोशिश की है। एक भारतीय विद्वान् आई महादेवन ने कम्प्यूटर की सहायता से इसे पढ़ने की कोशिश की।

कृष्ण राव ने सैन्धव लेखों की संस्कृत से साम्यता स्थापित की है। डॉ फतेहसिह एवं डॉ. एस.आर. राव ने भी इस दृष्टि से उल्लेखनीय कार्य किया है। हाल ही में बिहार के दो प्रशासक विद्वानों- अरूण पाठक एवं एन. के. वर्मा ने सैन्धव लिपि का संथालों की लिपि से तादात्म्य स्थापित किया है। उन्होंने संथाल (बिहार) आदिवासियों से अलग-अलग ध्वन्यात्मक संकेतों वाली 216 मुहरें प्राप्त की जिनके संकेत चिह्न सिंधु घाटी में मिली मुहरों से काफी हद तक मेल खाते हैं। इसके बावजूद भी सिंधु लिपि को पढ़ पाने में हम असफल हैं।

हड़प्पा धर्म

हड़प्पा सभ्यता के धार्मिक जीवन में किसी साहित्य का नहीं मिलना, स्मारकों के अभाव एवं लिपि नहीं पढ़े जाने के कारण कोई स्पष्ट जानकारी नहीं मिल पाती है। मोहनजोदड़ो से प्राप्त मुहर पर योगी की आकृति (पशुपति शिव) मिली है। लिंगीय प्रस्तर (शिव लिंग से मिलते-जुलते), मातृ देवी की मृण्मूर्ति जिससे उर्वरता की उपासना तथा मातृ देवी की पूजा के संकेत मिलते हैं। हड़प्पा सभ्यता में वृक्ष पूजा (पीपल), पशु पूजा (कुबड वाला पशु) एवं जल पूजां के प्रमाण मिले हैं।

मातृ देवी की पूजा

सिंधु घाटी में खुदाई से बड़ी संख्या में देवियों की मूर्तियाँ मिली है। ये मूर्तियाँ मातृदेवी अथवा प्रकृति देवी की है। इसलिए कहा जा सकता है कि लोग मातृ देवी की पूजा किया करते थे। बलूचिस्तान स्थित कुल्ली नामक स्थान में नारी मृण्मूर्तियों में सौम्य रूप दिखता है, और झौब संस्कृति से प्राप्त मूर्तियाँ रौद्र रूप में दिखती हैं। एक चित्र में स्त्री के पेट से एक पौधा निकलता हुआ दिखाई देता है, जिससे यह ज्ञात होता है कि इसका संबंध पृथ्वी की देवी, पौधों की उत्पत्ति और लोगों के विश्वास से था। एक-दूसरे चित्र में एक स्त्री पालथी मारकर बैठी हुई है और इसके दोनों ओर पुजारी हैं। इसी से भविष्य में शक्ति की पूजा, मातृ पूजा और देवी पूजा का प्रचालन हुआ। इसका प्रभाव आज भी हिन्दू धर्म पर देखने को मिलता है। सिन्धु घाटी के लोगों की मातृ देवी के अनेक रूप देखने को मिलते हैं।

शिव पूजा

मातृ शक्ति के साथ-साथ हिन्दू धर्म के लोकप्रिय देवता भगवान् शिव की पूजा के प्रचलित होने के भी प्रमाण हैं। शिव को हिन्दू धर्म में भी महायोगी, पशुपति एवं त्रिशूलधारि के रूप में पूजा जाता है। सिन्धु घाटी के धर्म में शिव की उपासना का यही रूप था। मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुहर में योगी की मुद्रा में एक व्यक्ति का चित्र है। इसके तीन मुख और दो सींग हैं। उसके बांयी ओर बाघ और हाथी तथा दांयी ओर भैंस और गैंडा हैं। आसन के नीचे दो हिरण बैठे हुए हैं।

लिंग और योनि पूजा

  • मातृ देवी और शिव के अतिरिक्त सिंधु निवासी लिंग और योनि की पूजा प्रतीक रूप में करते थे।
  • इसके द्वारा ईश्वर की सृजनात्मक शक्ति के प्रति वे अपनी आराधना की भावना प्रदर्शित करते थे।
  • हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो की खुदाइयों में लिंग एवं योनियों की प्रतिमाएँ काफी बड़ी संख्या में प्राप्त हुई हैं।
  • ये पत्थर, चीनी मिट्टी अथवा सीप के बने हुए हैं। कुछ लिंग का आकार बहुत छोटा था।

वृक्ष पूजा

  • सिन्धु निवासी वृक्षों की भी पूजा करते थे।
  • पीपल, नीम और बबूल की पूजा होती थी, मुख्य रूप में पीपल और बबूल की पूजा होती थी।
  • खुदाई से वृक्षों के अनेक चित्र मुहरों पर अंकित मिले हैं।

पशु पूजा

  • वृक्ष की पूजा के अलावा सिंधु निवासी पशुओं की भी पूजा करते थे।
  • खुदाइयों में मुहरों पर पशुओं के चित्र मिले ही हैं, इनकी मूर्तियाँ भी प्राप्त हुई हैं।
  • सिंधु निवासी पशुओं में देवी अंश की कल्पना कर उनकी पूजा करते थे।
  • कुछ पशुओं को देवता का वाहन समझा जाता था।
  • पशुओं में सबसे प्रमुख कुबड़ वाला सांड की पूजा करते थे।

जल एवं प्रतीक पूजा

सिन्धु निवासी जल देवता की भी पूजा करते थे या स्नान को धार्मिक अनुष्ठान का दर्जा प्रदान किया गया था। इसी उद्देश्य से मोहनजोदड़ो में विशाल स्नानागार का प्रबंध किया गया था। खुदाइयों से सींग, स्तम्भ और स्वस्तिक के चित्र भी मुहरों पर मिले हैं। ये किसी देवी-देवता के प्रतीक स्वरूप थे और इनकी पूजा की जाती थी।

अग्निपूजा (यज्ञ)

कालीबंगा और लोथल के खुदाई से स्पष्ट साक्ष्य मिलता है कि सिन्धु घाटी सभ्यता के युग में यज्ञ-बलि प्रथा प्रचलित थी।

दर्शन

सिन्धु घाटी सभ्यता के निवासियों के धर्म से उनके दर्शन का पता चला है। उनकी मातृ पूजा से प्रतीत होता है कि वे शक्ति का आदि स्रोत प्रकृति को मानते थे। उनका यह प्रकृति वाद, दर्शन मूलक या सूक्ष्मतत्त्वापेक्षी नहीं था।

धार्मिक प्रथाएँ

हड़प्पा निवासियों के धार्मिक प्रथाओं में देवता को प्रसन्न करने के लिए नर बलि या पशु बलि दी जाती थी। प्राचीन लोगों की तरह सिंधु वासी भी बाह्य एवं बुरी शक्तियों के अस्तितिव में विश्वास रखते थे तथा उनसे अपनी रक्षा के लिए ताबीज का उपयोग करते थे। धार्मिक अवसरों पर गान-बजान, नृत्य आदि का भी प्रचालन था। सिंधु निवासी मृत्योपरान्त जीवन में विश्वास रखते थे। परन्तु यह धारणा उतनी प्रबल नहीं थी जितनी हम मिस्र में पाते हैं।

कालीबंगा में गढ़ी वाले टीले में एक चबूतरे पर एक कुआँ, अग्निदेवी और एक आयाताकार गर्त मिला है जिसके भीतर चारों ओर पालतू पशुओं की हड्डियाँ और हिरन के सींग मिले हैं। कुछ मोहरें एवं मुद्राएँ भी ताबीज की तरह इस्तेमाल की जाती थीं। इनमें से कुछ ताबीज प्रजनन शक्ति के प्रतीक के रूप में पहने जाते रहे होंगे। मिट्टी के कुछ मुखौटे भी मिले हैं जिनका प्रयोग धार्मिक उत्सवों पर किसी नाटक की भूमिका में पात्रों द्वारा किया जाता रहा होगा। मुद्राओं पर एकश्रृंगी पशु के सामने जो वस्तु दिखाई गई है, उसकी पहचान कुछ लोगों ने धूपदानी से की है।

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